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मीतिवाम्यामृत
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हानाः किल काननेषु करिणो न भवन्त्यास्पद व्याधीनाम् ||६|| सततं सेव्यमाने ई एव पस्तुनी सुखाय, सरसः स्वैरालापः ताम्बूलभपणं चेति ॥६॥ चिरायोर्ध्वानुनाइयति रसवाहिनी नसाः ॥६१॥ सततमुपविष्टो जठरमा-मापयति प्रतिपद्यते च तुन्दिलता चाचि मनसि शरीरे च ॥६२॥ अतिमात्र खेदः पुरुषमकालेऽपि जरया योजयति ॥६३॥ नादेवं देहप्रासाद कुर्यात् ॥६॥ देवगुरुधर्मरहिते पुसि नास्ति सम्प्रत्ययः ॥६५॥ पलेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषो देवः ॥६६॥ तस्यैवैतानि खल विशेषनामान्यांनाऽनन्तः शहदरतमोऽन्तक इति ॥६॥
अर्थ-देव, गुरु ध धर्मकी भक्ति करनेवाला कभी भ्रान्तबुद्धि (कर्तव्य पक्षसे विचलित करने हाती पुडि युक्त.)नहीं होता॥५६॥ ठिरस्कार कराने वाली भूमिमें स्थित होकर मानसिक-निमेष (भ्यान) करनेसे समस्त इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं, अतः विषेकी पुरुष ऐसी जगह बैठकर धर्मभ्यान न करे, वहां उसका अनादर होता हो ॥४ा जिसप्रकार उत्सम रसायनके सेवनसे शरीर निरोगो व अलिट होता है, इसीप्रकार शीतल, मंद, सुगंध वायु से संचार करने (घूमने) से भी मनुष्यों का शरीर निरोगी व बलशाली मेजाता है II निश्चयसे वनों में अपनी इच्छानुज्ञ भ्रमण करने वाले हाथी कभी बीमार नहीं होवे ॥॥ हितपो भारमीय शिष्ट पुरुषों के साथ सरस (मधुर) वार्तालाप व पानका भक्षण इन दोनों पशुओका मनुष्यको निरन्तर सेवन करना चाहिये, क्योंकि इनसे सुख प्राप्त होता है ।।६०
जो मनुष्य चिरकालता घुटनों के बल बैठा रहता है, उसकी रस धारण करने वालो मसे कमजोर पपजाती है ।।६१॥ निरन्तर बैठे रहनेसे मनुष्यकी जठगग्नि मन्द, शरीर स्थूल, भावाज मोटी व मानसिक विचार-शक्ति स्थून होजाती है ।शा अत्यन्त शोक करनेसे भी जवानी में भी मनुष्यका शरीर प इन्द्रियो नियम व शिषित हो जाती हैं अतः शोक करना उचित नहीं ॥६३।। मनुष्य अपने शरीर रूप गृह को ईश्वर-शून्स न करे-उसमें ईश्वरको स्थापित करे ॥६४ ईश्वर, गुरु व अहिंसाधर्मकी अवहेलना म. नेवासो व्यक्ति नैतिक और सदाचारी होने में किमीको विश्वास नहीं होता, अस: विधेफी पुरुषको शा. पत्र कल्याण बलोक में विश्वासपात्र होने के लिये बीतगग, सर्वज्ञ व हितोपदेशी अपमानि वीर्थर व मिर्म गुरू तथा महिमाधर्मका भवास होना चाहिये ॥६५॥ ऐसे पुरुष श्रेष्ठको ईशवर कहते हैं, जोकि जन्म, जरा व मरण-प्रादि दुःख, भानावरण दर्शनावरगा, मोहनीय भौर अन्तराय इन चार पातिया कर्म पया इनके स्वयसे होने वाले राग, पव मोह-त्रादि भाषफर्म एवं पापकर्म कपकालिमासे रहित होजो बीसराग सर्वा व हितोपदेशो हो ६६||
यशस्तिखको भी आचार्यश्रीने' मर्ष सवलोकका ईश्वर-संसारका दुःख-समुइसे उबार करने पाने, शुधादि दोषोंसे रहित व समस्त प्राणियोंको मोहमार्गको प्रत्यक्ष अपरेश करने वाले प्रभारि वीर्यवरों को सत्यार्थ ईश्वर कहा है ॥११॥
या कि सोमदेवलपि:- a योनिवि मdि Eमामोचित