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लिए देकर न्याययुक्त राज्य-सिहासन पर बैठना चाहिये ॥७३॥ राजकीय अधिकारोंसे होनत्र राजा द्वारा नबुलाये गये राज-मभ में प्रविष्ट नहीं होना चाहिये ११७४|| मनुष्य को अपने पूज्य माता, पिता और गुरुजनको खड़े होकर नमस्कार करना चाहिये ॥७५॥
मनुष्यों को देवकार्य — देवस्थान ( मन्दिर आदि), गुरू कार्य व धर्म-कार्यकी स्वयं देखरेख करनी चाहिये ॥७६॥ विवेक मनुष्यको कपटी, कारण मारण व उच्चाटन आदि करने वाले दुष्ट पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिये ॥७७
मनुष्य को ऐसे अन्याय के भोगों में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये, जहाँ पर प्राणियोंका घाव हो । परस्त्री के साथ मातृ-भगिनी माथ पृथ्यों के प्रति कर्तव्य, शत्रु के स्थान में प्रविष्ट होनेका निषेध, रथ आदि सवारी, अपरीक्षित स्थान आदि में आनेका निषेध, अगन्तव्य स्थान, उपासना के अयोग्य पदार्थ, कंठस्थ करने लायक विद्या, राजकीय प्रस्थान, भोजन व वस्त्रादिकी परीक्षाविध कर्त्त-काल भोजन आदिका समय, प्रिय लगने वाले व्यक्तिका विशेष गुण, भविष्य कार्य सिद्धिके प्रतीक, गमन व प्रस्थान के विषय में, ईश्वरोपासना का समय व राजाका जाप्य मन्त्र -
जनन्यापि परस्त्रिया सह रहसि न तिष्ठेत् ॥ ७६ ॥ नातिक्रुद्धोऽपि मान्यमतिक्रामेदवमन्येश वा ||८०|| नाप्ताशोधित परस्थानमुपेयात् ॥ ८१ ॥ नाप्तजनैरनारूढं वाइनमध्यासीत् ॥८२॥ न स्टेपरीक्षितं तीर्थं साथै सपस्विनं वामिगच्छेत् ||८३|| न याष्टिकैरविविक्त मार्ग भजेत् ॥ ८४ ॥ न विषापहारोपधिमणीन् चणमप्युपासीत || दश सदैव जाङ्गलिकीं विद्यां कण्ठे न घारयेत् ||८६|| मंत्रिभिषग्नैमिलिकरहितः कदाचिदपि न प्रविष्टेत् ||८७|| बहावन्यचक्षुष च भोज्यमुपभोग्यं च परीक्षेत ||८|| अमृते मरुति प्रविशति सर्वदा चेष्टेत ॥८६॥ भक्तिसुरतसमरार्थी दक्षिणे मरुति स्यात् ॥ ६०॥ परमात्मना समीकुर्वन् न कस्यापि भवति द्वेष्यः ॥१॥ मनः परिजनशकुनपवनानुलोम्यं भविष्यतः कार्यस्य सिद्धेलिङ्गम् ॥६२॥ नैकोनक्क दिन वा हिंडे ||३|| नियमितमनोवाक्काय: प्रतिष्ठेत ॥६४॥ अहने संध्यामुपासीताऽनचत्रदर्शनात ॥६५॥ चतुः पयोधिपयोधरां धर्मवत्सवतीमुत्साहबालधिं वर्णाश्रमखुरां कामार्थश्रवणां नयप्रतापविषायां सत्यशौचचचुषं न्यायमुखीमियां गां गोपयामि, भ्रतस्तम मनसापि न सहे योऽपराज्येतस्यै, इसीमं मंत्रं समाधिस्थो अपेत् ॥ ६६ ॥
अर्थ - नैतिक पुरुष दूसरेकी स्त्रीके साथ एकान्त में न बैठे, चाहे वह उसकी माता भी क्यों न हो क्योंकि इन्द्रियों को काबू में रखना निश्चित नहीं, इसलिये मे विद्वान् को भी अनीविके मार्ग की ओर कर देती है ॥७५॥ मनुष्यको अस्थत कुपित होनेपर भी अपने माननीय मावा -पिता आदि हितैषी पुरुषोंके साथ अशिष्ट व्यवहार में अनादर नहीं करना चाहिये ॥८०॥