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घरका विद्वान ने भी देश, काल, अग्नि, मात्रा, प्रकृति, संस्कार, वीर्य कोष्ठ, अवस्था व क्रमआदि से विरुद्ध आहार को अहितकारक-अनेक रोग पैदा करनेवाला कहा है। उसमें जो व्यक्ति भूम्दा न होने पर भी किसी कार्य विशेषसे मल-मूत्र का वेग रोककर बाहार करता है, उसके आहार को क्रमविरुद्ध कहा है । अज्ञानवश ऐसा (क्रम-विरुद्ध) माहार-करनेवाला अनेक रोगोंसे पीड़ित होजाता है, अतः भूख लगनेपर ही भोजन करना चाहिये।
योगि टिमा नाम शाल मुबारगृ भी विष होजाता है, अतः ज्ञधा ( भख ) लगने परही मोजन करना चाहिये ॥३०॥ जो मनुष्य सदा आहार के प्रारम्भ में अपनी जठराग्नि को वजकी अग्नि समान प्रदीप्त करता है, वह वनके समान शक्तिशाली होजाता है ।शा बमुशित-भूखा मनुष्य यदि भन्न न खाकर केवल बी-दृध मादि तरल पदार्थं पीता रहे, तो वह अपनी जठराग्निको नष्ट कर सकता है, अत: तरल पदार्थों के साथ २ अन्न-भक्षण भी करना चाहिये ॥३२॥ अत्यंत थकावट के कारण उत्पन्न हुई प्यासको शान्त करने में दूध सहायक होता है ॥३३॥ पृत-पान पूर्वक भोजन करनेवाले मनुष्यकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है और मेत्रों की रोशनी भी बढ़ जाती है ॥३४॥ जो एकमार में अधिक परिमाणमें पानी पीता है, इसकी जठराग्नि मन्द होजाती है ।।३। भूख का समय उस्मान करनेसे प्रश्न में अरुचि व शरीर में शता-कमजोरी होजाती है। अतः भूखके समयका उपसान नहीं करना पाहिये ।।३६॥
जिसप्रकार अग्निके बुझ जानेपर उसमें ईधन डालनेसे कोई लाभ नहीं, इसीप्रकार सुभुजाकाल के स्नान करनेसे जठराग्निके बुझजाने पर भोजन करनेसे भी कोई लाभ लाभ नहीं। अतः उसके प्रदीप्त होनेपर भोजन करना चाहिये ॥३७॥ अठराग्नि के अमुकूल खानेवाला ही स्वस्थता के कारण अधिक खाता है ॥३८॥ स्वास्थ्य रक्षा चाहने वाले को प्रदान व लोभ-वरा जठराग्निसे भषिक, हितकर (दुग्लादेनेवाला), अपरीचित भलीभांति परिपाक न होनेवाला, रसहीन व भूखका समय सम्मान करके
भोजन नहीं खाना पारिये। मोत-स्वास्थ्य चाहनेवाला ज्या हुमा मौनपूर्वक सध्या, स्निग्ध, जठराग्निके अनुकूल, पूर्व भोजनके पनजानेपर किया हुमा, छदेशमें वर्तमान व काम-क्रोधादि दुर्भागों को उत्पन्न न करनेवाला पाहार न अस्यत शीघ्रता से और न अत्यंत विलम्ब से करे। परक विद्वान् ने इस विषय की पिशव व्याख्या की है, परन्तु विस्तार के भवसे हम हिलना नहीं चाहते ॥३॥
नैतिक पुरुष ब्राहारको बेलामें अल्प-भोजन करनेवाला, अपने से बैर-विरोध रखनेवाला, बुभुक्षित व दुष्ट व्यक्ति को अपने पास न बैठाये; क्योंकि इनकी उपस्थिति भोजन को प्रषिकर बना देती
सी-मजाकन करता
, अयाचक:-प्राहारजात तत् सर्गमहिलापोपविरते ।।
मायापि पेशाकाबग्निमात्रासाम्बानिमादिभिरिरमादि । मचानुत्सप विमत्र भुक्ते पश्चाभुषितः ।। 'ताप कमविक्षस्यात् । घरकस दिवा सूचम्पान 40 २६ ।