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नीतियाक्यामृत
समस्त बुद्धियां यथार्थ होकर प्रतिविम्बित होजाती हैं ।।२।। सूर्योदय र सूर्यास्तके समय सोनेवासे पुरुष सामायिक प्रावि धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर पाते; अतएव उन्हें यह समय सोने में खराब नहीं करना चाहिये ।।३॥ प्रातःकाल उठकर मनुष्य को अपना मुख घृत अथवा शोशा-दपेशामें देखना चाहिये ॥४॥ मनुष्य सुबह नपुंसक व अंगोपांग-हीन (सूले-लंग-प्रादि ) को न देखे ॥२
तीनों सन्ध्यायों में मुख शुस करके जप करनेखाले भ्यक्तिका अधमादि तीर्थंकर देव अनुप्रह करते हैं ।।६।।
जो पुरुष हमेशा दांतोन नहीं करता-उसकी मुख-शुद्धि नहीं हो पाती। अतः सुन्दर स्वास्थ्य को कामना करनेवाले मनुष्य को सुबह-शाम विधिपूर्वक दांतोन करते हुए इस बावका ध्यान रखना चाहिये कि मसूड़ों को तकलीफ न हो और दांतोन भी नीम जैसी तितरसवाली हो। ऐसा करनेसे फफादिक से उत्पमहुई मुखको दुर्गन्धि नष्ट होजाती है और दांत भी सुन्दर व चमकीले दिखाई पड़ने लगते हैं |
मनुष्यको किसी कार्यमें मासक्त होकर शारीरिक क्रियाभों ( मल-मूत्रादि का यथासमय च पथआदि ) को न रोकना चाहिये ।।८। नैतिक मनुष्यको कदापि समुद्र में स्नान नहीं करना चाहिये, पाहे समुद्र में चिरकालसे तरंगों का उठना बन्द हो गया हो ।।।। शारीरिक स्वास्थ्यके इच्छुक व्यक्तिको मतमूत्रादिका वेग, कसरत, नींद, स्नान, भोजन और ताजी हवा में घूमना-आदि की यथासमय प्रवृत्ति नहीं रोकनी चाहिये । अर्थात सतत कार्य यथासमय करने चाहिये ।।१।
वीर्य व मल-मूत्रादिके वेगोंको रोकने से हानि, शौच सभा गृह प्रवेशकी विधि व व्यायामशुक्रमलमूत्रमरुद्वेगसंरोधोऽश्मरीभगन्दर-गुल्मार्शसा हेतुः ॥११॥ गन्धलेपावसानं शौचमाचरेत ॥१२॥ बहिरागतो नानाचाम्य गृहं प्रविशेत् ॥१३॥ गोसर्गे व्यायामो रसायनमन्यत्र पीखा. . जीर्णवद्धवातफिरूपभोजिभ्यः ॥१शा शरीरायासजननी क्रिया व्यायामः ॥१५॥ शस्त्रयाहनाभासेन व्यायाम सफलयेत् ॥१६॥ मादेहस्वेदं व्यायामकालमुशन्त्याचार्याः ॥१७॥ पलातिक्रमेण व्यायामः का नाम नापदं जनयति ॥१८॥ मव्यायामशीलेषु सतो. ऽग्निदीपनमुरसाहो देहदाय च ॥१६॥
मर्थ-जो व्यक्ति अपने वीर्य, मल, मूत्र और पायुके अंगोंको रोकता है ससे पथरी, भगंदर, गुल्म व यमासीर मावि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
घरक' विधाम ने लिखा कि बुद्धिमान पुरुषको मल-मूत्र, वीर्य वायु, वमन, बीक, बद्गार हमा परक:-मगार चारवेदीमाजासान मूत्रपुरुषयो। म रेसो नपातस्पर्णः सवयो । गोगारस्पन गम्भाषामगार पिपासमो। म बापस्त निधारा गिरवासस्म अमेबसपस्विमेहमयोः एवं मत्रा विरोरुजा | बिनामो समयानाः स्थास्थामुनिपरे । पस्चारायशिरएन पाव! प्रबलमम् । पिपिडकोष्टनामा परीने पारिपारित ॥ मेरे सहयोः शूमामदों हर व्यथा। भवेद मटिइने के विवई मत्रमेव