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अमात्य समुहेश
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बनाता है । अर्थात् राष्ट्र संबंधी कृषि व वाणिस्य आदिको पूर्वापेक्षा विशेष उमति करके दिखाता है उसे स्वामी द्वारा धन व प्रतिष्ठा मिलता है ।।६।।
शुक' विद्वान् के संगृहीत श्लोक का भी यही भाशय है ॥११॥ योग्यतानुसार नियुक्ति, कायोसदि में उपयोगी गुण तथा समर्थन व भधिकारी का कर्तव्ययो यत्र कर्मणि कुशलस्तं तत्र विनियोजयेत् ।।६०॥ न खलु स्वामिप्रसादा सेवकेषु कार्यसिदिनिबन्धन किन्तु बद्धिपुरुषकारावेव ॥६१ शास्त्रविदग्यदृष्टकर्मा कर्मस विषादं गच्छेत् ।।६२॥
निषेधभतुने किचिदारम्भं कुर्यादन्यत्रापत्प्रतीकारेभ्यः ॥६३॥
अर्थः-जो अधिकारी जिस पदके कतव्य पालन में फशल हो, उसे उस पद पर नियुक्त कर देना चाहिये ।।६०॥ निश्चय से स्वामीके प्रसन्न रहनेसे ही सेवक लोग कार्यमें सफलता प्राप्त नहीं कर सकते किन्तु जब उनमें कार्योपयोगी बुद्धि व पुरुषार्थ (उद्योग) गुण होंगे तभी वे कतव्यमें सफलता प्राप्त कर सकते हैं ॥६॥ शास्त्रवेन विद्वान पुरुष भी जिन कतव्योंसे परिचित नहीं है, उनमें मोह (महान) प्राप्त करता है ॥६२||
मृगु विवान ने भी कतन्य कुशलतासे शून्य अधिकारीके विषय में इसी प्रकार कहा है ।।१।।
असस संकट दूर करनेके सिवाय दूसरा कोई भी कार्य सेवक को स्वामीसे निवेदन किये बिना नहीं करना चाहिये । अर्थात् युद्ध-कालीन शत्र-कृत उपद्रवों का नाश सषकको स्वामीसे बिना पूछे कर देना चाहिये इसके सिवाय उसे कोई भी कार्य स्वामी की आझा विना नहीं करना चाहिये ।।१३।।
भागुरि विद्वान के उद्धरणसे भी इसी प्रकार अधिकारी का कर्तव्य प्रतीत होता है ||१||
भचानक धन मिलने पर राज-कतन्य अधिक मुनाफासोर व्यापारियों के प्रति कर्तव्य व अधिकारियों में परास्परिक कलइसे लाभ--
सहसोपचितार्थो मूलधनमात्र णावशेषयितव्यः ।।६४ मूलधना विगुणाधिको लामो भाण्डोत्यो यो भवति स राक्षः ॥६५||परस्परकलहो नियोगिषु भूभुजा निधिः ॥६६॥
मथः-राजा अचानक मिला हुआ धन (लावारिस मरे हुए धनाड्य व्यक्तियों को भाग्याधीन मिली हुई सम्पत्ति) खजाने में स्थापित कर उसकी वृद्धि करे ॥६४||
अति पिहान् ने भी अधिकारियोंसे प्राप्त हुई भाग्यायोन सम्पत्ति विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥१॥ - ... .
..-.... . - . - . --.. --- १ तथा :-पो दरं स्पयन् यानात् स्वनु या पौषेय । विधान बरवाज्ञः सविच मागमानुपाए । २ मा च :-पेन पम्मकृतं कर्म त सस्मिन बोमिठो पूर्व । नियोगो मोहमायाति पयपि स्वामिनः ॥1॥ ३ था - भागरिः-न स्वामियचनाद गाम कर्म कार्यनियोगिमा | अपि वपन बल मुबाला शत्रुसमागमम् ।। vayा अत्रि:-अचिन्तितस्तु पामो पो नियोगावस्तु जायते । स कोशे संनियोम्परच बेन सच्चाधिक भवेत् ॥१॥