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राजरचा समुरेश
३१५ परछी तरह रखवाली की हुई वेश्या दूसरे पुरुषका उपभोग करने रूप अपना स्वभाव नहीं कोड़ती ॥५॥
गुरु' विद्वानने भी इसी प्रकार कहा है ॥१॥ प्रकृति-निर्देशया यस्य प्रकृतिः सा तस्य देवेनापि नापनेतु शक्येत ॥५३॥ सभोजितोऽपि श्वा किमशुचीन्यस्थीनि परिहरति ॥५४॥ न खलु कपिः शिक्षाशतेनापि चापन्यं परिहरति ॥५५॥ इचुरसेनापि सिक्तो निम्बः कटुरेव ॥५६॥
अर्थ-जिसकी जैसो प्रकृति होती है उसे विधाता भी दर करने में असमर्थ है ॥३॥ नार' ने भी ज्यान-श्रादि की प्रकृति का निर्देश किया है ।।१।।
अच्छी तरह भोजनादि द्वारा सृप्त हुआ मी कुत्ता क्या इड़ियां चबाना छोड़ सकता है ? नहीं छोड़ सकता ॥४॥
भूगु विद्वान् ने भी प्रकृति न बदलने के विषय में यहो कहा है ॥१॥
धैर्य-धारण की सैंकड़ों शिक्षामों द्वारा समझाया गया भी बंदर क्या कभी अपनी बल प्रकृति बोब सकता है ? नहीं छोड़ सकता II
अनि विहान ने भी बंदर की चंचन प्रकृति न बदलनेके विषयमें कहा है ॥१॥ गन्नेके मीठे रससे सींचा गया नीमका पेड़ कडुमा ही रहता है ।।६।। गर्ग' विद्वान्ने भी दुष्ट व शिष्टकी प्रकृति के विषयमें लिखा है ॥१॥
प्रकृति, कुरुम्न कुटुम्बियोंका पोषण व उनके विकृति होने का कारण, शारिरिक सौन्दर्य व कुडथियों का संरक्षण
पोराभितशर्करापानभोजितरचाहिम कदाविद् परित्यजति विषम् ॥५७॥ सन्मानदिवसा
दायुः कुल्यानामपग्रहहेतुः ॥५८॥ तंत्रकोशवर्धिनी कृतियादान् विकारयति ॥५६॥ दारुण्य। तथा च गुरु: यहोया क्षोभरोसा स्पीकवापि नरोत्तमैः । सेपरपुरुषानम्मान स्वभागो दुरूपजो मश: 14 २ तथा नार:-या सेवति भानन सुगहन सिंहो गुहा सेवते । इंसा सेवति पत्रिनों सुमिया ग्रा: साताग
स्थती । साइ: सेति साधुमेव सत्सं नीयोऽपि नौ जन । मा बस्य प्रकृति स्वभावनिता दुषमा स्या । तया - -स्वभावो नापाक शमः केनापि कुत्रचिन् । वेव सरसा मुक्या बिया मेव्याच
सृष्यति || " या अत्रिः-मोकः शिवायतेनापि न वापर त्यस्कपिः । समावो नोपदेशेन सय स्तं मयन्या ग ५ सया बगा:-पिशु दानमाधु संप्रयापि कथंचन । सिक्तपरसेनापि दुरुस्यमा प्रातिनि । A-उक्त सूत्र मु.म. पुस्तक से संकलन किया गया है, सं. टी. पु. मैं नहीं है।