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जनपद समुद्देश
शुक्र' विद्वानने भी 'जनपद' शब्द की यही व्याख्या को है ॥ १ ॥
क्योंकि देश अपने स्वामी की उन्नति करके शत्रु हृदयोंको विदीर्ण करता है अतः इसे 'दारक' कहा है ||६||
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कहा है कि 'देश बहुत से ऊंटों द्वारा अपने स्वामीकी उन्नति करके शत्रु हृदयों को विदीर्ण करता है अतः उसे दारक' कहते हैं ||१||
क्योंकि यह अपने घनादि वैभव द्वारा स्वामीको समस्त श्राप्तियोंसे छुड़ावा है अतः इसे विद्वानों ने 'निर्गम' कहा है ||
शुक्र विद्वानने भी निर्गम शब्द की यही सार्थक व्याख्या की है ||१||
देशके गुण व दोष.....
श्रन्योऽन्यरक्षकः स्वन्याक (द्रव्यनागधनवान् नातिवृद्धनातिहीनग्रामो बहुसार विचित्रघान्यहिरण्यपण्योत्पत्तिरदेयमातृकः पशुमनुष्यहितः श्रेणिशूद्ररूष केंद्राय इति जनपदस्य गुखाः ||८ विषतु योदकोषरपाषाण कटक गिरिंग गहरप्रायभूमिभूरिश्वर्षा जीवनो व्याल- लुब्धकम्लेच्छवहुल: स्वल्पसस्योत्पत्तिस्तरुफलाधार इति देशदाषाः ||
तत्र सदा दुर्मिचमेव, यत्र जलदजलेन सस्योत्पत्तिरकृष्टभूमिरचारम्भः ||१०||
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अर्थ - देशके निम्नप्रकार गुण होते हैं । १ परस्परकी रक्षा करने बाला --- जहांपर राजा देशकी और देश की रक्षा करता हो । २ जो सुवर्ण, रत्न चांदी, चांदा, व लोहा आदि धातुओंकी तथा 1, गन्धक - नमक आदि खनिज द्रव्यों की खानियोंसे यत एवं रुपया असर्फी आदि धन और हाथी-रूप धन से परिपूर्ण हो ।, ३ जिसके प्रामोंकी वन संख्या न बहुत बढ़ो हुई और न बहुत कम हो 1 ४ पर बहुतसे उम पदार्थ, नाना भांतिके अन्न, सुबर्ण, और व्यापारियोंके खरीदने व बेचने योग्य बस्तु पाई जावी हों । ५ जो मेघ अलकी अपेक्षा से रहित हो--जहां रट व बरसोंके जलसे खेती होती हो ।, ६ जो मनुष्य व पशुओं को सुख देने वाला हो ।
७ जहां पर बढ़ई जुलाहा, नाई घोवी, व चमार आदि शिल्प-शुद्र तथा किसान बहुलता से वर्तमान हो सारांश यह है कि जिस देशमें उक्त गुण पाए जाते हैं, वह सुखी रहता है ||८||
देश के निम्न प्रकार दोष होते हैं जिनसे वह निंदनीय समझा जाता है । १ जिसका घास पानी रोगजनक होनेसे विष समान हानिकारक हो, र जहाँकी जमीन ऊपर घास अन्नको उपजसे शून्य हो, ३ की अमोन विशेष पथरीजी, अधिक कंटकाकीर्ण तथा बहुत पहाड़, गड्ढे और गुफाओं में व्याप्त हो ४ न
१ तया च शुकः पार्था सर्वेषां द्रच्योत्पतेश्च वा पुनः बस्मात् स्थान ं भवेत् सोऽच तस्माज्जनपदः स्युः asil
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२ तथा च ज ैमिनि:----मतु स्नेव
हृदय यतः । द्वारका दारवन्तिस्म प्रभूता दारकं ववः ॥॥ – मोचापवति यो विज स्वाभिमानवः । यसनेम्बः प्रभूतेभ्यो नमः स इद्दोच्यसे ॥१॥
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