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नीतिवाक्यामृत
राजा, बाद सेवकों को अपना मन (वेतन आदि) नहीं देता, तोभी उन्हें उससे झगड़ा नहीं करना चाहिये ||२०||
शुक्र' विद्वान् काभी यही अभिप्राय है || १ ||
जिस प्रकार स्वाभिमानी पुरुष अपने गुड़ को चोरी से नहीं खाता उसी प्रकार वह राजासे क्रोधित होकर अपनी हानि भी नहीं करवाना चाहता ||२||
पण राजा के विषय में दृष्टान्य, कड़ी आलोचना योग्य स्वामी और योग्य भयोभ्य के विचारसे शुन्य राजा की हानि
किं तेन जलदेन यः काले न वर्षति ||२३|| स किं स्वामी य आश्रितेषु व्यसने न प्रविराशि को नाम तस्यार्थे प्रायच्यये नोत्सहेत || १५ ॥
घये ॥ २४ ॥ अविशेष अस मेघसे क्या लाभ है ? जो समय पर पानी नहीं वर्षा इसी प्रकार जो समय पर अपने सेवकों की सहायता नहीं करता, वह स्वामी भी व्यर्थ हैं ||२३||
ओ स्वामी संकटकालीन समयमे अपने श्राधीन सेवकों की सहायता नहीं करता वह निद्य है ॥२४॥८ जो राजा सेवकों के गुणों और दोषोंको परखने में शून्य है, अर्थात् जो विश्वासी और अविश्वासी (मणि और कांच में फर्क न जान कर दोनों के साथ समान व्यवहार करता है, उसके लिये कौन सेबक मों का बलिदान करने के लिये युद्धभूमि में शत्रु से खड़ेगा ? अर्थात् कोई नहीं ||२५||
गिर" विद्वान्ने भी मणि और कांच फर्क न जानने वाले राजाकी उपरोक हानि निर्दिष्ट की है।
इति बलसमुदेशः ।
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२३ मित्र - समुद्देश
मित्र का बच व उसके भेद
यः सम्पदीन विपद्यपि मेघति तन्मित्रम् ॥ १॥ यः कारणमन्तरेथ रथपो रथको वा भवति चित्य मित्रम् ॥२॥ वत्सहवं मित्रं यत्पूर्व पुरुषपरम्परायातः सम्बन्धः ||३|| यद्बुधिजीवित
देवोराभितं वत्कुत्रिमं मित्रम् ||४||
11ब
वाचकः कः कात्यूँ मुख्य समं । यदिच्छतिनो मिस्कृत्य पर २व्या मिरचोदिमणि काचो सम्भावनेशी | स्वस्थ भूपसेर सप्रामे निवर्ण मजे 1