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कोश समुरेश
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र अधिक तादाद में सोना व चांदी से युक्त जिसमें व्यवहार में चलने वाले रूपयों और
-मादि सिक्कों का प्राधिक संबह पाया जाये और जो सष्ट समय, अधिक खर्च में समर्थ हो, ये कोषके गुण है। अर्थात् ऐसे खजानेसे राजा व राष्ट्र दोनोंका कल्याण होवा है ।२॥
गुरु' विद्वान् ने भी इसी प्रकार कोश-सुमिपण किये हैं ॥५ । भीतिकार कामदक ने भी कहा है, कि 'जो मोती सुवर्ण और रत्नों से भरपूर, पिता तामह से रक्षा श्राने वाला न्याय से संचय किया हुआ व पुष्कल खर्च सहन करने वाला श्री से सम्पत्ति शास्त्र के विद्वानों ने 'कोश' कहा है ॥१॥ कोषधान्-धनान्य पुरुष को धर्म और धन सखा के निमित्त एवं भत्यों के भरण पोषणार्थ तथा आपसिसे बचाव करने के लिये मदा कोश की सा करनी चाहिये ||२| . राजा अपना कोश बढाता दुपा टेक्स-आदि न्यायोचित उपायों द्वारा प्राप्त किये हुए धन में से सब धन उपयोग में लावे ॥३॥
पशिष्ठ विद्वान ने कहा है कि बुद्धिमान नरेशों को आपत्तिकाल को छोडकर राय रक कोष की सदा पद्धि करनी चाहिये, न कि हानि ॥१॥
कोशद्धि न करने वाले राजा का भविष्य, कोश का माहाल्य घ कोशविहीन राजा के पुत्रस्य पविजयलक्षमी का स्वामी
इतस्तस्यायस्या श्रेयांसि यः प्रत्यह काकिण्यापि कोश' न वर्धयति ॥४॥ कोशो हि भूपतीनां जीवनं न प्राणाः ॥५॥ चीणकोशा हि राजा पोरजनपदानन्यायेन ब्रसवे ततो राष्ट्रशून्यता स्यात् ॥६॥ कोशो राजेपुष्पवे न भूपतीनां शरीरं ॥७॥ यस्य हस्ते प्रम्य स जपति ।।
भ:- जो राजा सदा कौढ़ी कौड़ी जोड़ कर भी, अपने कोश की वृद्धि नहीं करता, समका . भविष्य में किस प्रकार कल्याण हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥४॥
गुरु भी कोषवृद्धि के विषय में इसी प्रकार कहा है ॥१॥
निश्चयसे कोपही राजामौका जीवन-माण रक्षाका साधन है। प्राण नहीं 1 सारांश यह है कि राजतन्त्र कोषाश्रित है, इसके विना वह नष्ट हो जाता है । १ व्या व गुणा-भावाने सु सम्प्राक्षे बहुमयसामः | हिमपादिभिः सयुक्तः स कोशो गुबवाल सक याच कामन्दक:- मक्ताकमकरस्ताव्यः पितृपलाहमहोचित पार्जितो म्ययसहा कोषः कोपसम्भवः ॥
धर्मवोस्ववार्थाप अस्थानो भावाव। भापवर्षमय सरच्या कोपः कोपवा सपा ॥२॥ । सवा च पशिष्टः- कोगपति सदा कार्या में मानिः कयरन । मापस्कावाटते प्रायोयो रायसः ॥९॥ ४व्या व गुरु:-काकिस्यापि म रवि यः को मयति भूमिमा मापकाने तु सम्प्रासे शान मिः पीयते सि ॥