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नीतिवाक्यामृत
जब व्यापारी लोग बर्तनों आदिके व्यापार में भूलधन से दूनेसे भी अधिक धन कमाते हों तथ राजा को व्यापारियोंके लिये सूक्ष घनसे दूना धन देकर अधिक धन जब्त कर लेना चाहिये। क्योंकि व्यापारी गए इतना अधिक मुनाफा छल-कपट व चोरी भादि कुमार्गका अनुसरण किये बिना नहीं कर सकते ||६||
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शुक' विद्वान् के स गृहीत श्लोक का भी यही अभिप्राय है ॥२॥
अधिकारियों में आपसी फूट -- लड़ाई झगड़ा होनेसे राजाओं को खजाने के मिलने समान महा लाभ होता है, ऐसा होनेले वर्ग के एक दूसरे का अपराध प्रकट कर देते हैं, जिसके फलस्वरूप दडित किये जाने पर वे लोग रिश्वत द्वारा हड़प किया हुआ वन बता देते हैं ॥६६॥ गुरु विद्वान ने भी अधिकारियोंके पारस्परिक विरोधसे राजाओंको महान आर्थिक लाभ निर्दिष्ट किया है ॥१॥
धनाढ्य अधिकारियों से लाभ, संग्रह करने योग्य मुख्य वस्तु घान्य सवयका माहात्म्य व जिरस्थायी धान्य
नियोगिषु लक्ष्मीः चितीश्वरायां द्वितीयः कोशः ॥ ६७॥ सर्वसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान्, यतस्वभिबन्धनं जीवितं सकलप्रयासश्च ॥ ६८ ॥ न खलु मुखे प्रक्षिप्त: खरोऽपि द्रम्मः प्राणत्राणाय यथा धान्यं ॥६६॥ सर्वधान्येषु चिरजीविनः कोद्रवाः ||७०||
अर्थ:- अधिकारियों की सम्पत्ति राजाओं का दूसरा खजाना है क्योंकि उनके ऊपर संकट पड़ने पर अधिकारियोंकी सम्पत्ति उनके काम भाजावी है ॥६७॥
नारद' विद्वान् ने भी इसी प्रकार कह | है ||१॥
समस्त हाथी-घोड़े आदिके समद में से अन-स मह उसम माना गया है क्योंकि वह प्राणियोंके ater-निर्वाह का साधन है, एवं जिसके कारण मनुष्यों को कृषि आदि जीविकोपयोगी कार्यों में कष्ट उठाना पड़ता है ||६||
भृगु* विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है || १ ||
जिस प्रकार भक्षण किया हुआ धान्य प्राण-रक्षा कर सकता है, उस प्रकार निश्चय से बहु मुख्य सुबका सिक्का मुखमें रक्खा हुआ प्राणरक्षा नहीं कर सकता ॥ ६६॥
१ तथा च शुक्रः – यदि मूलधनाव कश्चिद् द्विगुणाभ्यधिकं लभेत्। ततस्थ मूलाद्विगुणं दस्वा ऐषं नृपस्य हि ॥१॥ २ तथा च गुरुः- जियोगिनां मियो पायो राज्ञां पुचयः प्रजायते । यतस्तेषां विवादे च नाभः स्वादुभूपतेः ॥ ३ तथा च नारदः — येथ त्यात संपत् संव सपम्महीपतेः । यतः कार्ये समुत्पत्रे निःशेषस्य समानयेत् ॥१॥ ४ तथा च भृगुः सर्वेषाँ स महायां च शस्योऽवस्य सप्रहः । यतः सर्वाणि भूतानि विश्वन्ति च ततः !