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मन्त्रिसमुश
. जलवन्माद वोपेतः पृथूनपि भूभृतो भिनत्ति ॥१२८॥
ई-महापुरुष दूरवर्ती शत्रु से भयभीत होते हैं उससे युद्ध नहीं करते, परन्तु शत्र के निकट ने पर अपनी बीरता दिखाते हैं ॥१२७॥ नीतिशास्त्र' में कहा है कि बुद्धिमान् पुरुष साभपूर्वक तपायांसे युद्ध करना छोड़े और कभी भाम्य करना पो. हि संकि रात मुकाबोर गोदशशार युद्ध करे ॥१॥ सन तक शत्र सामने नहीं आया, तभी तक उससे डरे और सामने आने पर निडर होकर पर प्रहार करे ॥२॥
जिसपकार कोमल जल प्रवाह विशाल पर्वतोंको उखाड़ देता है, उसोप्रकार कोमल राजा महायक्ति-शासी शत्रु राजाओंको नष्ट कर डालता है ।। १२ ।।
गुरु' विद्वानने भी कहा है कि 'मृदुता (नम्रता) गुण से महान कार्य भी सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रबाहके हारा कठोर पर्वत भी विदारण कर दिये जाते हैं ।। १।।" रिय रूपनों से लाभ, गुम रहस्य-प्रकाशकी अवधि व महापुरुषोंके वचन क्रमशः--
प्रिय बदः शिखीव सदर्पानपि द्विषत्सानुत्सादयति B ॥१२६॥ नाविज्ञाय परेषामर्थमनथं वा स्वहृदय प्रकाशयन्ति महानुभावाः ॥१३०॥
चीरकृषवत् फलसम्पादनमेव महतामालापः ॥१३॥ अयं-प्रियवादी पुरुष मोरके समान अभिमानी शत्रु रूपी सोको नष्ट कर देता है ।।१२।।
एक विद्वान्ने भी कहा है कि जिसप्रकार मयूर मधुर स्वरसे वर्ष-युक्त सोको नष्ट कर देता है, नीमकार मीठे वचन बोलनेवाला राजा भी अहंकारी शत्रु ओंको निस्सन्देह नष्ट कर डालता है ॥१॥
उत्तम पुरुष दूसरों के हृदयकी अच्छी या धुरी बात जानकरके ही अपने मनकी बात प्रगट
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जिन मावोपेतः इत्यादि मु० मू० प्रतिमें पाठान्तर है, परन्तु अर्थ-भेव कुछ नहीं ।
तो मीती-युवं परित्यजेत्रोमानुपायैः सामपूर्वक । कदाधिज्जायते वैवादीनेमापि वनाधिक भर परस्य मेवम्प मावको दर्शनं भवेत् । पर्शने सु पुनर्घाते प्रहसम्यमशंकित: ॥२॥ - गुरु-भावमापि सिबम्ति कार्याणि सुगरूपयपि । यतो जलेन भियते पर्वता अपि मिथुराः ॥१॥
पाठ शिस्त्री व पूना सायरोको ६० लि. मू० प्रसियोंसे संकलन किया गया है। प्रिय'पदः शिखीव दिवस संजापति पेसा सं० दी. पु० में पाठ है, इसका अर्थ भी पूर्वोक्त समझना चाहिये। संपादक
पात् फलामको महतामाखापा ऐसा उक्त मु. प्रतियों में सुन्दर पार है । सम्पादकपाएक-यो राजा मृवाक्यः स्यात्सदानपि विद्विषः । स निहन्ति न सन्देवो मयूरो भुजगानिय ॥१॥
-Traimi
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