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पुरोहितसमुद्देश
आपत्तियों का स्वरूप वा भेद एवं राजन्पुत्रकी शिक्षा क्रमश:
श्रमानुष्योऽग्निरवर्यमतिवर्ष मरकी दुर्भिक्ष सस्योपधातो जन्तुत्सर्गो व्याधि-भूतव्याल- मूषक - क्षोभश्चेत्यापदः ||३||
पिशाच - शाकिनी - सर्व शिक्षालापक्रियाक्षमो राजपुत्रः सर्वासु लिपिसु प्रसंख्याने पदप्रमाणप्रयोगकर्मणि नीत्यागमेषु रत्नपरीक्षायां सम्भोगमहश्योध्यायविद्यासु च साधु नेिधः ॥ ॥
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अर्थ - उल्कापात - बिजली गिरना, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी रोग, दुर्भिक्ष - अकाल, टिड्डी वगैरह से धान्य-नाश, हिंसक जीवोंके छूटने से होनेवाली पीड़ा, बुखार - गलगंडादि शारीरिक रोग, भूत, पिशाच, शाकिनी, सर्प और हिंसक जन्तुओंसे होनेवाली पीड़ा और मूषकोंकी प्रचुरतासे होनेवाला कष्टप्लेगकी बीमारी वगैरह आपत्तियाँ है । निष्कर्ष यह हैं कि प्रकरण में राज पुरोहितको उक्त प्रकारकी राष्ट्र पर होनेवाली देवी मानुषी आपत्तियों का प्रतीकार करने में समर्थ होना चाहिये ||३||
राजा अपने राजकुमारको पहले पब्लिक सभाओं के योग्य वक्तृत्व कलामें प्रवीण बनाये । पश्चात् समस्त भाषाको शिक्षा, गणितशास्त्र, साहित्य, न्याय, व्याकरण, नीतिशास्त्र, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र शस्त्रविद्या, और हस्ती-मश्वादि वाहन विद्या में अच्छी तरह प्रवीण बनाये || ४ ||
राजपुत्र' विद्वानने भी कहा है कि 'जिसका राजकुमार विद्याओं में प्रवीण नहीं व मूर्ख है, उसका राज्य सुशिक्षित राजकुमारके विना निस्सन्देह नष्ट होजाता है ||१||
गुरु सेवाके साधन, विनयका लक्षण व उसका फल क्रमश:
अस्वातन्त्र्यमुक्तकारित्वं नियमां विनीतता च गुरूपासनकारणानि ||५|| व्रतविद्यावयोधिकेषु नीचराचरण ं विनयः ||६||
पुण्यावाप्तिः शास्त्ररहस्यपरिज्ञानं सत्पुरुषाधिगम्यत्वं च विनयफलम् ||७||
अर्थ
-- स्वच्छन्द न रहना, गुरुकी आज्ञा-पालन, इन्द्रियोंका वशीकरण, अहिंसादि सदाचार - प्रवृत्ति एवं नम्रताका व्यवहार, गुण गुरु सेवाके साधन है-शिष्य की उक्त सत्प्रवृत्तिसे गुरु प्रसन्न रहते हैं ||५||
१ तथा राजपुत्रः कुमारो यस्य मूर्खः स्याम विद्यासु विवक्षयाः । तस्य राज्यं विनश्येत्तदात्या नात्र संशयः ॥ १ ॥ A उसक स्थानमें मु० व ६० लि० मू० प्रतियों में 'विनीततार्थश्च' ऐसा पाठ है जिसका अर्थ नम्रता और धन देना है। नाका वर्ताव करना और धन देने से गुरु प्रसन्न रहते हैं बाकी अर्ध पुर्ववन् है । सम्पादक