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विचारसमुद्देश
अमानका लण व फल, भवितव्यता प्रदर्शक चिह्न तथा बुद्धि प्रभाव क्रमशःकर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणमनुमानम् ॥ १० ॥ संभाषितैकदेशो नियुक्त विद्यात् ॥ ११ ॥ प्रकृतेर्विकृतिदर्शनं हि प्राणिनां भविष्यतः शुभाशुभस्य चापि लिङ्गम् ॥ १२ ॥ य एकस्मिन् कर्मणि दृष्टबुद्धिः पुरुषकारः स कथं कर्मान्तरेषु न समर्थः ॥ १३ ॥ अर्थ- बहुत कार्यों में से किये हुए कार्य द्वारा बिना किये हुए कार्यका बुद्धिसे निश्चय करना 'अनुमान' है । सारांश यह है कि किसीसे कीहुई एकदेश कार्य सिद्धि द्वारा उसमें पूर्ण कार्य सिद्धिकी सामर्थ्य का निश्चय करना अनुमान है। क्योंकि जो मनुष्य एकदेश कार्य-सिद्धि करने में कुशल होता है, उसे अनुमान प्रमाण पूर्णकार्य सिद्धि हि ॥ ९०११ ।।
प्रकृति (शुभ-अशुभ स्वभाव) से विकृति (विकारयुक्त बदलना) दिखाई देना प्राणियों के भविष्यकातीन अच्छी-बुरी होनहारका ज्ञापक चिन्ह है। सारांश यह है कि जब कोई पुरुष नैतिक मार्ग-सदाचार से धनीति-दुराचार में प्रवृत्त हुआ दिखाई देवे तो समझ लेना चाहिये कि इसकी होनहार युरी है। इसीप्रकार जब कोई मनुष्य सत्सङ्गत्यादि द्वारा अनीति से नीति में प्रवृत्त हुआ प्रतीत हो तो उसकी होनहार अच्छी समझनी चाहिये || १२ ॥
नारद' विद्वान्ने भी कहा है कि 'जब मनुष्योंका शुभभाव पापमें प्रवृत्ति करने लगता है, तब उनका अनिष्ट (बुरा) होता है और जब उनका अशुभ भाव शुभमें प्रवृत्ति होने लगता है तब उनका कल्याण होता है ।। १ ।।'
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जो मनुष्य अपनी बुद्धि और पौष (उद्योग) एक कार्य सिद्धि करनेमें सफल कर चुका है, वह दूसरे कार्यं सिद्ध करनेमें क्यों नहीं समर्थ होसकता ? अवश्य होसकता है । अर्थात् संभव है कि बुद्धिमान् पुरुष किसी दूसरे अपरिचित कार्य में कुशल नी हो तथापि वह अपनी बुद्धिके प्रभाव से इस कार्य को सफल कर सकता है || १३ ॥
जैमिनि विद्यामने भी कहा है कि 'जिसकी बुद्धि और पौरुष एक कार्य में सफल देखे जा चुके हैं, उसे उसी अनुमान प्रमाणसे दूसरा कार्य सिद्ध करनेमें भी समर्थ जानना चाहिये ॥ ९ ॥ ॥
आगम और आपका लक्षण, निरर्थक वारसी, वचनों की महत्ता कृपण-धनको कड़ी आलोचना और अनसाधारण की प्रवृत्ति क्रमश:
१ तथा च नारदः— शुभभावो मनुष्याणां यदा पापे प्रवर्तते । पाणे चाय शुभे तस्य तदा अनिष्टं शुभं भवेत् ॥ १ ॥ २ तथा जैमिनिः--पूर्व यस्य मतिर्दष्टा पुरुषार्थोऽपरस्तथा । पश्चासेनानुमानेन तस्य ज्ञया समर्थता ॥ १ ॥