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स्वामीसमुद्देश
बलात्कारपूर्वक प्रजासे धन-महण करनेवाले राजा व प्रजाकी हानि, व राजकीय अन्याय की दृष्टान्तमाझा द्वारा कड़ी आलोचना
प्रासादध्वंसने लोहकीलकलाभ इव लञ्चेन राज्ञोऽर्थलाभः ||४०|| राज्ञो लञ्वेन कार्यकरणे कस्य नाम कल्याणम् ||४१ ॥
देवतापि यदि चौरेषु मिलति कुतः प्रजानां कुशलम् ॥४२॥ लुनाथपाश्रयं दर्शयन् देश कोश मित्रं तन्त्र ं च भक्षयति ||४३||
राक्षोsन्यायकरणं समुद्रस्य मर्यादालङ्घनमादित्यस्य तमः पोषयमिव मातुश्चापत्यभचणमित्र कलिकालविजृम्भितानि ॥ ४४ ॥
श्रर्थ- जो राजा बलात्कारपूर्वक प्रजासे घन प्रहण करता है, उसका वह अन्यायपूर्ण आर्थिक लाभ महलको नष्ट करके लोह कोलेके लाभ समान हानिकारक हैं । अर्थात् जिस प्रकार जरासे - साधारण लोह-कीले के लाभार्थ अपने बहुमूल्य प्रासाद (महल) का गिराना स्वार्थ- नाशके कारण महामूर्खता है, उसी प्रकार छुद्र स्वार्थके लिये लूट-मार करके प्रजासे धन-प्रहण करना भी भविष्य में राज्य क्षतिका कारण होनेसे राजकीय महामूर्खता है। क्योंकि ऐसा घोर अन्याय करनेसे प्रजा पोड़ित व संत्रस्त होकर बगावत कर देती है, जिसके फलस्वरूप राज्य क्षति होती है। अभिप्राय यह है कि राज्य सत्ता बहुमूल्य प्रासाद- तुल्य है, उसे चोर समान नष्ट करके तुच्छ क्षय ( लूटमार या रिश्वत ) रूप कीलेका प्रहण करनेवाला राजा हंसी का पात्र होता है, क्योंकि वह ऐसा महाभयङ्कर अन्याय करके अपने पैरोंपर कुल्हाड़ी पटकता है ॥ ४० ॥
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गर्ग
के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
जो राजा बलात्कार करके प्रजासे धनादिका अपहरण करता है, उसके राज्यमें किसका कल्याण हो सकता है ? किसीका नहीं ॥ ४१ ॥
भागुरि विहान भी अम्बानी राजाके विषय में इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
क्योंकि यदि देवता भी चोरोंकी सहायता करने लगे, तो फिर किस प्रकार प्रजाका कल्याय हो सकता है ? नहीं हो सकता । उसी प्रकार रक्षक ही जब भक्षक होजाय - राजा ही जब रिश्वतखोरों व ट मार करनेवालोंकी सहायता करने लगे, तब प्रजाका कल्याण किस प्रकार हो सकता है? नहीं हो सकता ॥४२॥
1:-द्वारेव यो हाम्रो मूमिवानांस की
लोककलामस्तु वः प्रासादध्वंसने ॥ ॥
२ तथा च भागुरिः समारमाथि यो राजोत्यधनं हरेत् । न तस्य किंचिद स्वार्थ कदाचिद संभाग प्र