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मर्नु मशक्यप्रयोजनं च जन नाशया परिक्लेशयेत् A ॥ ५३ ॥ अर्थ-यदि गजा प्रयोजनाथियोंका इष्ट प्रयोजन सिद्ध न कर सके, तो उसे उनको भेंट स्वीकार न करनी चाहिये किन्तु षापिस भेज देनी चाहिये । क्योंकि प्रत्युपकार न किये जानेवाले मनुष्यकी भेंट स्वीकार करनेमे लोकमें हँसी व निन्याके सिवाय कोई लाभ नहीं होता !! ५० ॥
नारद विद्वान् ने भी इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
नैतिक मनुष्यको अपरिचित और सहन न करनेवाले व्यक्तियोंसे हँसी-मजाक न करनी चाहिये । क्योकि इसका परिणाम महाभयकर होता है, पुराण प्रन्थों में लिखा है कि रुक्मीने जुआ खेजते समय पसदेवकी हँसी की थी, परन्तु वे उसे सहन न कर सके; इसलिये उन्होंने क्रुद्ध होकर रुक्मीपर गदा-प्रहार द्वारा घात कर डाला || ५१ ॥
शौनक विद्वान्ने भी अपरिचित व सहन करनेमें असमर्थ पुरुषोंके साथ हास्य-क्रीड़ा करनेका निषेध किया है॥१॥
नैतिक व्यक्ति पूज्य पुरुषोंके साथ वाद-विवाद न करे ।। ५२ ।।
शुक्र विद्याम ने भी कहा है कि 'जो मूर्ख व्यक्ति पूज्यपुरुषोंके साथ वाद-विवाद करता है, वह लोकमें निन्दा और परलोकमें नरकके दुःख भोगता है ।।१।।
विषेकी पुरुष ऐसे व्यक्तिको धनादि देनेको श्राश्शसे क्लेशित न करे, जिसका उसके द्वारा भरणपोषण नहीं किया जा सकता अथवा जिससे उसको कोई प्रयोजन-सिद्धि नहीं होसकती ॥ ५३ ।।
शुक्र विद्वान् ने भी उक्त बावको इसीप्रकार कहा है ॥१॥
A 'भृत्यमशस्थप्रयोजन नाशया बोराये। इसप्रकार मू० प्रवियों में पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि स्वामीको प्रयोजन
सिवि में असमर्थ सेवकको पारितोषिक-माविका पोभ देकर स्लेशित नहीं करना चाहिये । , या नावा-बपापन न गृहणीपादि कार्य न साधयेत् । पर्थिना पृथ्वोपालो मो याति स ।। २ तथा च शौनकः-पायोनिति भूपः साई समागतः । ये चापि न सहन्तेस्म दोषोऽय पतोse:..|| । तथा च यः- सा विवाद यः कुरुले मतिवर्जितः । स गिन्दा समते लोके परत्र नरक बजेत् ॥1॥ ५ तथा यक:--विमेनुगशक्त यो जमः पृथ्वीमुना। स्थाशया म संवरमो विशेषायोजनः ।