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नोतिषाक्यामृत
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अनि ' विधामने भी अन्यायी लूट-मार करनेवाले राजाके विषयमें इसीप्रकार कथन किया है। रिश्चत षा सूट-मार आदि पहन पाय द्वार! पाक धन अपहरण करनेवाला राजा अपने देश (राज्य) खजाना, मित्र व पन्य नष्ट कर देता है ।। ४३ ।।
भागुरि विद्वामने भी रिश्वत व लूट-मार करके धन बटोरनेवाले अन्यायो राजाके विषयमें इसी प्रकार कहा है।
राजाका प्रजाके साथ अन्याय (लूट-मार धादि) करना, समुद्रकी मर्याता उल्लङ्गन, सूर्यको धेर। फैलाना व माताको अपने बच्चेका भक्षण करने के समान किसीके द्वारा निवारण न किया जाने वाजा महाभयङ्कर अनर्थ है, जिसे कलिकाल का हो प्रभाव समझना चाहिये । सारांश यह है कि जिसप्रकार समुद्र ही अपनी मर्यादा-सीमाका उल्लङ्घन करने लगे और सूर्य अपना प्रकाशधर्म छोड़कर लोकमें अंधकार का प्रसार करने तत्पर होजाय एवं माता भी अपने बच्चेका पालनरूप धर्म छोड़कर यदि उसे भक्षण करने लगजाय, तो इन्हें कौन रोक सकता है ? कोई नहीं रोक सकता, इसीप्रकार राजा भी अपना शिष्ट-पालन व दुनिग्रह रूप धर्म छोड़कर प्रजा के साथ अन्याय करनेको तत्पर हो जाय, तो उसे दर देनेवाला कौन हो सकता है ? कोई नहीं हो सकता और इसे कलि-दोष ही समझना चाहिये; असएवं राजाको प्रजाके साथ भन्याय करना उचित नहीं ॥ ४४ ॥ न्यायसे प्रजापालनका परिणाम, न्यायवान् राजाको प्रशंसा व राजकत्र्तव्य
न्यायतः पारपालके राशि प्रजानां कामदुघा भवन्ति सर्वा दिशः॥ ४५ ॥ काले वर्षति मघवान्, सर्वाश्चंतयः प्रशाम्पन्ति, राजानमनुवर्तन्ते सर्वेऽपि लोकपाला: तेन मध्यममप्य चमं लोकपालं राजानमाहुः।। ४७॥ भव्यसनेन चीलाधनान् मूलधनप्रदानेन सम्भावयेत् ।। ४८॥
राको हि समुद्रावधिर्मही कुटुम्ब, कलत्राणि च वंशवर्द्धनक्षेत्राथि ॥ ४६ ।। मर्थ-जब राजा न्यायपूर्वक प्रजा-पालन करता है, तब समग दिशाएँ प्रजाको अभिलषित बस्तु देनेवाली होती है, क्योंकि ललितकला, कृषि वाणिज्य-श्रादि की प्रगति न्याय-युक्त शासनके अधीन है ४५
नीतिकारों ने कहा है कि जब राजा प्रजा-पालनमें पिस्तित रहता है तब देशकी स्वार्थ सिद्धि होती है क्योंकि न्याय-युक्त शासनमें कृषक क्षेमसे धान्य भार धनाडा, ज्यापार द्वारा धन प्राप्त करते हैं ॥१॥
ज्या - अनिःश तुम्चामयुत्तस्य कोरकू स्याज्जनतासुखम् । यथा दुर्गाप्रसादेन चौरोपरि कृतेन च ॥ २ तथा भारत-दर्शनं लुम्चनास्प यः करोति महीपतिः । स देशकोशमित्राणां तन्त्रस्य च संकरः ॥ तमा धोक्वं-बाशा चिन्तापरे देशे स्वार्थसिद्धि : मजायते । रमेण कर्षका सस्यं प्राप्नुयु निमोधनम् ॥ 1 ॥