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नीतिवाक्यामृत
साथ मिला देती है, उसीप्रकार नीच पुरुषकी विद्या भी उसे बड़ी कठिनाईसे दर्शन होनेयोग्य राजासे
मिक्षा देवी है ॥ ५७ ॥
गुरुविद्वान् के उद्धरण से भी यही आशय प्रकट होता है ॥ १ ॥
परन्तु ऐसा होजानेपर भी राजा से अर्थ-लाभादि प्रयोजन सिद्धि उसके भाग्याधीन है, क्योंकि भाग्य के प्रतिकूल होनेपर विद्या प्रभाव नहीं होसकता ॥ ५८ ॥
गुरु विद्वान् ने भी इसीप्रकार विद्या प्रभाव निर्देश किया है ॥ १ ॥
विद्या निश्चयसे कामयेतु समान विद्वानोरथ पूर्ण करनेवाली है, क्योंकि उससे उन्हें समस् संसार में प्रतिष्ठा व कर्तव्य-बोध प्राप्त होता है ॥ ५६ ॥
शुक्र ' विद्वान् ने इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
लोक व्यवहार-निपुण की प्रशंसा, बुद्धि के पारदर्शी व कर्त्तव्यबोधन कराने वालों को आलोचनाःलोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायक एव ॥ ६० ॥
ते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषा ये कुर्वन्ति परेषां प्रतित्रोधनम् ॥ ६१ ॥
अनुपयोगिना महतापि किं जलधिजलेन ॥६२॥
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अर्थ - निश्चय से लोक व्यवहार जानने वाला मनुष्य सर्वज्ञ समान और लोक व्यवहार-शून्य विद्वान् होकर भी लोक द्वारा तिरस्कृत समझा जाता है ||६०॥१
नारद * विद्वान् ने भी व्यवहार चतुर की इसी प्रकार प्रशंसा की है ॥ १ ॥
जो मनुष्य सदुपदेश आदि द्वारा दूसरों को कर्त्तव्य बोध कराते हैं, वे निश्चयसे ज्ञान-समुद्र पारदर्शी हैं ॥६५॥
जैमिनि विद्वान् ने भी कहा है कि जो विद्वान् दूसरों को कर्तव्य-बोध कराने की कक्षा में प्रवीख है,
१ तथा च गुरुः– नीचानि च यो विद्यमानुसार बुद्धिमाचरः दुर्वमपि राजानं तत्प्रभावात् स पश्यति ॥18
३ तथा च गुरु- दुर्दर्शमपि राजान' विद्या दर्शपति भुवम् । आत्मप्रभावतो बोके तस्य मान्याणि केवलम् ॥ १ ॥ शुक्रः - विद्या कामदुधा धेनुर्विज्ञान संप्रजायते । यतस्तस्याः प्रभावेन पूज्याः स्युः सवतो दिशः ॥
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४ तथा नारदः -- लोकानां व्यवहारं यो विजानाति स पचिवसः । मूर्खोऽपि योऽयवान्यस्तु स विशेोऽपि मचा अहः ॥१
4 यथा च जैमिनिः--अथ विशाः प्रकुर्वन्ति येऽन्येषां प्रतिबोधनम् । सर्वज्ञास्ते परे पूर्खा बधे स्युर्घटदीपवत् ||११|