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नीतिवाक्यामुव
उपकर्माधिकारस्य उपकारमेव ध्वजांकृत्य सर्वमवलुम्पति ॥ ३४ ॥ सहपाशुक्रीरितोऽमात्योऽतिपरिचयात् स्वयमेव राजायते ॥ ३५ ॥ अन्तर्दुष्टो नियुक्तः सर्वमनर्थनुत्पादयति ॥ ३६ ॥ शकुनि शकटालापत्र दृष्टान्तौ ॥ ३७ ॥ सुहृदि नियोगिन्यवश्यं भवति घनमित्रनाशः ॥३८॥ मूर्खस्य नियोगे भतु धर्मार्थयशसा संदेहो निश्चिती चानर्थ-नरकपातौ ॥ ३६॥
मर्थ-राजा पूर्वोक्त तीनों प्रकार के बन्धुनों में से किसी बन्धुकी भावना ऐसे किसी पुरुषको पर्व मंत्री भादि अधिकारी-पद पर नियुक्त न करे, जिसे अपराभ-वस की सजा देनेपर पश्चाताप करना पड़े ॥३॥
गुरु'विद्वान् ने भी अ-सचिवके विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥१॥
राजाको पूज्य पुरुषके लिये अधिकारी नहीं बनाना चाहिये, क्योंकि वह अपने को राजा द्वारा पूम्म समझकर निबर व माल होता हुमा राजाकी माझा उम्मान करता है व राजीव-पनका अपहरण मावि मनमानी प्रवृत्ति करता है, जिससे राजकीय अर्थ पति होती है ॥३२॥
नारद विद्वान् ने भी राध-पूज्य पुरुषको अधिकारी बनाने से वही हानि निरूपण की है ॥१॥
चिरकालीन-पुराना-सेवक भषि. . ... हुमा भविपरिचयके कारय चोरी-बारि अपराध कर लेनेपर भी निडर रहता है, जो पुराने सेबसको भधिकारी न बनाये ॥ ३३॥
वेवल विद्वान ने भी चिरकालीन सेवकको-मर्च-सचिव बनाने विस्वमें इसीप्रकार निशेष लिया॥१॥
जो राजा अपने उपकारी पुरुषको अधिकारी पदपर नियुक्त करता है, तो यह (अधिकारी) पूर्वत्र पकार राजाके घमा प्रकट करके समन्व राजकीय पनप कर जाता है, मका उपकारीको परिकारी महीपनामा चाहिये ॥३४॥
पनि विद्या के बारणका मी पही अभिमान है ॥ रावा पेसे बाल मित्र म्यक्तिको समविषादि प्रक्रीिन बनाये, बो किवा सो
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वा- गुरु-सम्मान माया गरियोजनाकार रहा रव्या मार-मासोकसी मान्योममिति मात्रामा मार दिनमा पनि
वाव देसामवंदो राजा विका मोसमापन शाबमो •पाच पवि-परिव मूषो माविका मिलोबत मामला
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