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स्वामीसमुश
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न्यायी राजाके प्रभावसे मेघोंसे यथासमय जल-वृष्टि होती है और प्रजाके सभी उपद्रव शान्त होते है तथा समस्त लोकपाल राजाका अनुकरण करते हैं-न्याययुक्त कर्त्तव्य पालन करने हैं ॥ ४६ ।।
गुरु विद्वान् ने भी न्याययुक्त शासनकी इसीप्रकार प्रशंसा की है ॥ १॥
इसी कारण विद्वान् पुरुष राजाको मध्यमलोकपाल-मध्यलोकका रक्षक-होनेपर भी उत्तम नोकपाल स्वर्गलोकका रक्षक कहते हैं ॥४॥
रैभ्या विद्वान् के अहागाका भी खड़ी अपाय है।
राजा प्रजाके उन कुटुम्बियोंको जो कि यत-क्रीड़न प्रभृति व्यसनोंके बिना ही केवल म्यापारआदिमें नुकसान (घाटा) लगजरनेसे दरिद्र हुए हैं, मूल धन (व्यापारियोंके लिये कर्जामें दिया जाकर उनसे वापिस लिया जानेवाला स्याई धन) देकर संतुष्ट करे ॥ १ ॥
शुक्र विद्वान् भी कहा है कि राजा जुवा-श्रादि व्यसनोंके कारण दरिद्र होनेवालोंको छोड़कर दूसरे दरिद्रता वश टुःस्त्री कुटुम्बियोंके लिये सौ सौ रुपये व्याजूना-कर्जा देदेवे ॥ १॥'
समुद्रपर्यन्त पृथ्वी (उसमें वर्तमान प्रजा) राजाका कुटुम्ब ई और अन्न-प्रदान द्वारा प्रजाका संरक्षण-संवर्द्धन करनेवाले खेत उसकी स्त्रियाँ है । अभिप्राय यह है कि धार्मिक राजाको प्रजाका जीवन-निर्वाह करनेवाली कृषिकी उन्नति करते हुए समस्त प्रजाको अपने कुटुम्ब समान समझ कर पालन करना चाहिये ।। ४६॥
राज-कर्त्तव्य व मनुष्यकर्त्तव्य स्वीकार न करने योग्य भेट, हंसी-मजाककी सीमा, वाद-विवादका निषेध व निरर्थक श्राशा न देना--
भर्थिनामुपायनमप्रतिकुर्वाणो न गृखीयात् ॥ ५० ॥ आगन्तुकरसहनैश्य सह नर्म न कुर्यात् ।। ५१ ।। पूज्य सह नाधिकं वदेवः ॥ ५२ ॥
१ तथा च गुरु:-इन्धादिलोकपाला ये पाथिये परिपालके । पालयन्ति च तद्राष्टं पामे चामं च ते॥॥ २ तथा च भ्या-[लम्चादिक्षिकमो राजा] मध्यमोऽपथ मानषैः । श्लाम्यते यस्तु सोकामा सम्पन्न स्थात् परिपायक
[संशोधित र परिवर्तित ३ तथा च शुर:-प्रतिकं च शतं अव्या देय राज्ञा कुटुम्बिने । सौवमानाप नो देष पूननिधनाय च ॥1॥ A 'पूज्य : सहाधिरुझ न पदत्' इस मकार मू० प्रहियोंमें पाठ है, जिसका अर्थ है शिप्ट पुरुषको मासम वगैरहपर ग.
रडता पूर्वक बैठकर पूज्य पुरुषोंके साथ बातचीत महों करनी चाहिये ।'