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मातुः स्तनमपि लुञ्चन्ति लञ्चोपजीविनः ॥३८॥
लञ्चेन कार्यकारिभिरूनः स्वामी विक्रीयते ॥३६॥ अर्थ-राजा पाये हुए प्रयोजनार्थी पुरुषोंको, बलात्कार-पूर्वक रिश्वत लेनेवाले (रिश्वतखोर) अमात्य आदि अधिकारियोंके लिये अपने प्राणों की बलि देनेवाले (रिश्वत देनेवाले) न बनावे । सारांश यह है कि रिश्वतखोरीसे प्रजा-पीड़ा, अन्याय-वृद्धि व राज-कोश-क्षति होती है, अतः राजाको प्रयोजनार्थी पुरुषोंका रिश्वतखोरोंसे बचाव करना चाहिये ।।३६||
शुक्र' विद्वान्ने भो प्रयोजनार्थियोंका रिश्वतखोरोंसे बचाव न करनेवाले राजाकी आर्थिक क्षतिका निरूपण किया है ॥ १॥
बलात्कार पूर्वक रिश्वत लेना समस्त पापों (हिंसा-श्रादि) का द्वार है ।।३जा
वशिष्ट विद्वानने ही पलूस: वियोर प्रधिकारियोंसे युक्त राजाको समस्त पापोडा माश्रय बतलाया है॥१॥
रिश्वतखोरीमे जीविका करनेवाले अन्यायी रिश्वतखोर अपनी माताका स्तन भी भक्षण कर लेते हैं-अपने हितैषियों से भी रिश्वत ले लेते हैं फिर दूसरोंसे रिश्वत लेना तो साधारण बात है ।।३।।
भारद्वाज' विद्वान्ने भी रिश्वतखोरोंकी निर्दयता व विश्वास घातके विषयमें इसी प्रकार मन किया है। रिश्वतखोर अपने उन्नतिशील स्वामीको बेच देते हैं। क्योंकि जिस प्रयोजनार्थीसे रिश्वत जी जाती है, उसका अन्याय-युक्त कार्य भी न्याय-युक्त बताकर रिश्वतखोरोंको सिद्ध करना पड़ता है, जिससे स्वामीकी मार्थिक वृद्धि होती है यहो रिश्वतखोरों द्वारा स्वामीका बेचना-पराधीन करना समझना पाहिये ॥ ३६॥
भृगु विज्ञान के जबरणका भी यही अभिप्राय है ॥१॥
A 'सम्ोन कार्वामिल्छः स्वामी विक्रीयते' इस प्रकारका पाठ म० प्रतिमों में है, जिसमें कार्याभिः परका
'कार्यो कसा हुआ है, शेषार्थ पूर्ववत् है। ५ व्या च धुक्र:-कार्यार्थिनः समायातान् परर भूगो न पश्यति । स चाय पते तेषां दस कोरी न गाने १ तथा बशिष्ठ:--सम्लुम्पानको यस्य चाटुकभैरतो नरः । तस्मिन् सर्वाणि पापानि संघमन्ती सहा II । तथा च भारद्वाजः- सम्योपजीषिमो येऽन्न जनम्या अपि पस्तनम् । भन्यम्ति सुनिल भन्मबोकस का कमा ४ तथा / भृगुः-लश्वन कर्मण पत्र कार्य कुर्वन्ति भूपतेः । विक्रीतमपि भात्मानं नो जानाति स महधोः ॥