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नोविंवाक्यामृत
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अर्थ--विजिगीष ऐसे वेष (बहुमूल्य वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत कमनीय कान्ता-आदिके सुन्दर भेष) व व्यवहार-वोव-पर विश्वास न करे और न उन्हें काममें लावे जो कि अज्ञात-बिना जाने हुए वा माप्त पुरुषों द्वारा बिना परीक्षा किये हुए हों, क्योंकि शत्र लोग भी नाना प्रकार के छलकपट-पूर्ण वेश्याभों मादिके वेष व मायाचार-युक्त वर्ताव द्वारा विजिगीषको धोखा देकर भयङ्कर खतरेमें डाल देते हैं॥२७॥ जिस मनुष्यसे राजा कुपित होगया है, उसपर कौन कुपित नहीं होता है ? सभी कुपित होते हैं ॥२०॥
हारीत विद्वानके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १॥ राजाके पापी होनेसे कौन पुरुष पापमें प्रवृत्त नहीं होता ? सभी होते हैं ॥ २६ ॥
न्यास' विद्वान्ने भी कहा है कि 'प्रजा. राजाका अनुकरण करती है । अर्थात् जैसा राजा वैसी प्रजा हो जाती है। वह राजाके धर्मात्मा होनेसे धर्मात्मा, पापी होनेसे पापी व दुष्ट होनेसे दुष्ट होजाती है ॥ १॥
जो व्यक्ति राजा द्वारा तिरस्कृत-अपमानित किया जाता है, उसका सभो लोग अपमान करने लगते है और राज-सन्मानित पुरुषकी सभी पूजा करते हैं ॥ ३०-३१ ।।
नारद विद्वान्ने भी राजा द्वारा तिरस्कृत व सन्मानितके विषयमें यही कहा है ॥१॥
राज-कर्तव्य ( प्रजा-कार्यका स्वयं विचार, प्रजासे मिलने से लाभ, न मिलने से हानि) व अधिकारियों की अनुचित जीविका
प्रजाकार्य स्वयमेव पश्येत् ॥३२॥ यथावसरमसङ्ग द्वारं कारयेत् ॥३३॥ दुर्दशी हिं राजा कार्याकार्य विपर्यासमासन्नैः कायंते द्विषतामतिसन्धानीयश्च भवति ३४
वैद्य'षु श्रीमतां व्याधिवर्द्धनादिव नियोगिषु भत् व्यसनादपरो नास्ति जीवनोपाय ३५ अर्थः-राजा प्रजा कार्य- शिष्टपालन व दुष्टनिग्रह आदि स्वयं ही विचारे व अमात्य आदिके मरोसे पर न छोदे, अन्यथा रिश्वतखोरी और पक्षपात घगैरहके कारण प्रजा पीड़ित होती है । ३२॥
देवल विद्वान्ने भो प्रजा कार्य को अधिकारियोंके भरोसे पर छोड़ देनेसे प्रजा-पीड़ा-आदि हानि बताई है ॥२॥
१ या हारीत:-विकाशन फुरुले योऽत्र प्रकृल्या नैव विति । प्रभोस्तस्य विरम्पेत निजा मपि प पन्धवः १ज्या च म्यास:-राशि धर्मिणि धर्मियाः पापे पापाः खले स्खलाः । राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा: un ३ वयान नारदः-अवज्ञातस्तु यो सशा स विद्वानपि मानवैः । अवज्ञायेत मूखोऽपि पल्यते नृपपूजितः ॥१॥ • प्रथा च देवलः- स्युर्विधारका राशामुस्कोचा प्राप्य वेऽन्यथा | विचारयन्ति कार्याणि तत् पापं नृपतेर्यतः