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नीतिवाक्यामृत
उदाहरणार्थ -- जब सोहन मोहनकी निदा हमारे सामने करता है तब हमें चाहिये कि हम उस समय मोइन
को अधिक प्रशंसा करें; ताकि यह उसकी निंदा करना छोड़ दे । १४ ॥
हारोव' विद्वानके उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
गान-श्रवण, नृत्य-दर्शन व वादित्र श्रवण में चसक्क हुआ कौन पुरुष अपने प्राण, धन और मानमर्यादा को नष्ट नहीं करता ? अर्थात् सभा नष्ट करते हैं अतः विवेकीको उक्त गान अवण भादिमें स नहीं होना चाहिये ||१५|| निरर्थक यहाँ वहाँ घूमने-फिरनेवाला व्यक्ति अपूर्ण मनर्थ (महान् पाप) वि विना विश्राम नहीं लेता । अर्थात् निष्प्रयोजन फिरनेवाला सभी पापोंमें फँस जाता है, अतः भ नाभादि प्रयोजन शून्य फिरनेका त्याग करना चाहिए || १६ ||
भृगु विद्वान ने भी निरर्थक फिरने वाले के विषय में यही कहा है ॥ १ ॥
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जो लोग अपनी स्त्रियोंसे अत्यंत ईष्या (डाइ-दूष) करते हैं, उन्हें स्त्रियां छोड़ देती हैं या मार डालती है, अतः प्रत्येक व्यक्ति स्त्रीले प्रेमका बर्ताव करे ।। १७ ।।
भृगु विद्वान्के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥
दूसरोंकी स्त्रियों का सेवन और कन्याओं को दूषित (सेवन) करना 'साहस' है जिसके द्वारा रावण और दाक्षिक्यको मृत्यु-दंड प्राप्त हुआ था यह पुराणों में प्रसिद्ध ही है ॥ १८-१६ ॥
भारद्वाज विद्वान् ने भी परकलन-सेवन व कन्या-दूषण को दुःख देनेवाला निरूपण किया है ||१|| भृगु विद्वान ने भी 'साहस' का यहो लक्षण निर्देश किया है ||१||
जो मनुष्य आमदनी से अधिक खर्च व अपात्र दान करता है, वह कुबेर समान धनाढ्य होने पर भी दरिद्र होजाता है पुनः साधारण व्यक्ति का दरिद्र होना स्वाभाविक है ||२१||
दारीत विद्वान् के उद्धरणका भी यही अभिप्राय है || १ ||
1 तथा च हारीतः प्रयध्याधिपरीतस्य यथा नास्त्यत्र भेषजम् । परीवादप्रयोगस्य स्तुतिं मुक्खा न भेषजम् ॥१॥
२ तथा च भृगुः पृथारनं नरो योऽत्र कुरुते बुद्धिवर्जितः । अयं प्राप्नुयात् यस्य भान्तोन लम्पते ॥ १ ॥
३ तथा भगः -- ईयधिकं त्यजन्तिम नम्ति वा पुरुष स्त्रियः । कुलोद्भूता अपि प्रस्थः किं पुनः कुकुलोद्भवाः १
४ तथा च भारद्वाजः—अम्यमार्यापद्दारो यस्तथा कम्याप्रदूषणम् । तत् साहसं परिज्ञेयं खोकडपभयप्रदम् ॥१॥ अङ्गीकृस्यारमनो मृत्यु यत् कर्म क्रियते मरे । तरसाहसं परियं रौद्रकर्मणि निर्भयम् ॥१॥ प्रतियच योऽर्थस्य कुरुते कुत्सितं सदा । दारिद्रयोपहतः स स्यानोऽपि न किं परः ॥५॥
५ तथा च भृगुः - ६ तथा च हारीतः