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नीतिवाक्यामृत
युक्तितस्तमुपभुञ्जीत ||२७|| राजपरिगृहीतं तृणमपि काञ्चनीभवति [जायते पूर्वसञ्चितस्याप्यर्थस्यापहाराय '] ॥ २८ ॥ चाक्पारुष्यं शस्त्रपातापि विशिष्यते ॥ २६ ॥ जातिवयोवृचविद्यादोषाणामनुचितं वचो वाक्पारुष्यम् ||१०|| स्त्रियम्पत्यं भृत्यं च तथोक्त्या विनयं ग्राहयेद्यथा हृदयप्रविष्टाच्छत्यादिव न से दुर्गमायन्ते ॥ ३९ ॥
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वधः परिक्लेशोऽर्थहरमक्रमेण दण्डपारुष्यम् ||३२|| एकेनापि व्यसमै मोपहतश्चतुरोऽपि राजा विनश्यति, किं पुनर्नाष्टादशभिः ॥ ३३ ॥
अर्थ-अपनी स्त्रीको अधिक मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य अधिक वीर्य धातुके इय होजाने से असमय वृद्ध या नपुसंक होजाया है ॥ ६ ॥
धन्वन्तरि विद्वानके उद्धरणका भी यही
है ॥ १ ॥
क्योंकि स्त्री सेवनसे पुरुषको शुक्र ( वीर्य ) धातु तय होती है, इससे शरीरमें वर्तमान वाकीको समस्थ छ घातुएँ — रस, रुधिर, मांस, मेद व अस्थि आदि नष्ट होजाती हैं। निष्कर्ष यह है कि नैठिक पुरुषको वीर्य सार्थ श्रह्मचर्य पालन करना चाहिये अथवा अपनी स्त्रीको अधिक मात्रामें सेवनका स्वाग करना चाहिये ॥ ७ ॥
वैद्यक' विद्वानने भी वीर्य-क्षयसे इसीप्रकार दानि बताकर वीरता करनेवाले शेरकी हाथीसे अधिक वा निरूपण किया है ।। १-२ ॥
मद्यपी - शराबी-पुरुष मानसिक विकार वा ( नशे में आकर ) माताको भी सेवन करने लगता है। wa: ऐसे अनर्थकारक मद्यका त्याग करना श्रेयस्कर है ॥ ८ ॥
नारद विद्वान्ने भी इसीप्रकार मद्यपानके दोष बताकर उसके त्याग करने में प्रवृत्त किया है ॥ १ ॥
• कोष्ठाति पाठ म्० प्रतियोंमें नहीं है। इसके पश्चात् 'येन बलम्वापो जायते तद्वचनं वाकूपारायऐसा मूत्र प्रतियोंमें अधिक पाठाम्वर वर्तमान है, जो कि क्रमप्राप्त एवं उपयुक्त भी है, जिसका अर्थ यह है कि जिस अभिन बचनले हृदय संतापित हो उसे 'वाक्पारुष्य' कहते हैं।
२ तथा च भवन्तरिः प्रकास जरसा युक्तः पुरुषः स्त्रीनिषेववाद । अथवा मध्मया युक्तस्तस्माद्युक्तं निषेवेत् ॥१॥
६ तथा च वैद्यकः – सौम्यधातुचये पुसां सर्वधातुक्षयो यतः । तस्मात्तं येषु नान्मूखो न कारयेत् ॥ १ ॥ सर्व बलवन्तो हि धातवः । [त रखति यतः सिंहो] लघुस्तुम सोऽधिकः ॥ ९ ॥ * तथाच नारदः - या म्यान्मद्यमनस्तु कुलीनोऽपि पुमांस्तदा । मातरं भजते मोहमायुक्तं निषेधयेत् ॥ १ ॥
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