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नीतिवाक्यामृत
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मर्मभेदी कर्कश वचन शस्त्रके घावसे भी अधिक कष्टदायक होते हैं। इसजिए मनुष्यको किसीके लिए शस्त्र से चोट पहुंचाना अच्छा है, परन्तु कर्कश कठोर वचन बोलना अच्छा नहीं ||२६||
विदुर' विद्वान्ने भी कहा है कि 'कर्कश वचनरूपी बाण महाभयङ्कर होते हैं; क्योंकि वे दूसरोंके मर्मस्थलोंमें प्रविष्ट होकर पीड़ा पहुंचाते हैं, जिनसे ताड़ित हुआ व्यक्ति दिन-रात शोकाकुल रहता है | १| मनुष्य की जाति, आयुष्य, सदाचार, विद्या, व निर्दोषता के अयोग्य विरुद्ध (विपरीत) वचन कहना वाकू पारुष्य है, अर्थात् कुलीनको नोचकुलका वयोवृद्धको बालक, सदाचारी को दुराचारी, विद्वान् को मूर्ख और निर्दोषी को सदोषी कहना वाक्पारुष्य है ॥ ३० ॥
जैमिनि विद्वान् ने भी वाक्पारुष्यका यही लक्षण करके उसे त्याग करने को कहा है || १ || नैतिक मनुष्यको अपनी स्त्री, पुत्र व नौकरोंको वाक्पारुष्य – कर्केश वचनका त्यागपूर्वक हित, मित और प्रिय वचन बोलते हुए इसप्रकार विनयशील बनाना चाहिये, जिससे उसे हृदयमें चुभे हुए कीलेके समान कष्टदायक न होने पायें, किन्तु श्रानन्ददायक हों ।। ३१ ।।
शुक विद्वान ने भी कहा है कि जिसके कर्कश वचनों द्वारा स्त्री, पुत्र व सेवक पीड़ित रहते हैं, उसे उनके द्वारा लेशमात्र भी सुख नहीं ।। १!!
अन्यायसे किसीका वध करना, जेलखाने की सजा देना और उसका समस्त धन अपहरण करना या उसकी जीविका नष्ट करना 'दण्ड पारुष्य' है ॥
३२ ॥
गुरु विद्वान् ने भी दंडपारुष्यका यही लक्षण किया है ॥ १ ॥
जो राजा उक्त १८ प्रकार के व्यसनों में से एक भी व्यसनमें फँस जाता है, वह चतुरङ्ग सेना (हाथी, घोड़े, रथ और पदाति) से युक्त होता हुआ भी नष्ट होजाता है, फिर १८ प्रकारके व्यमनोंमें फँसा हुआ क्या नष्ट नहीं होता ? अवश्य नष्ट होता है ॥ ३३ ॥
भावार्थ – इस समुद्देशमें आचार्यश्रीने निम्नप्रकार १८ प्रकारके व्यसनोंका निर्देश किया है। १ स्त्री-आसक्ति, २ मद्यपान, ३ शिकार खेलना, ४ चव-कीवन, २ पैशुन्य (चुगलो करना), ६ दिनमें शयन,
१ तथा विदुर, वाक्सायका रौदशमा भवन्ति चैराहतः शोचति राम्यहामि । परस्य मस्वापि ते पतति छान् पथिवो मैच चिपेत् परेषु ॥१॥
२ तथा
मिनिः-- [जातिविद्यासुवृत्तायान्] निर्दोषाम् यस्तु भर्त्सयेत् । सद्गुरोर्शमयां नीतैः पारुष्यं त
३ तथा च शुकः -- भार्याभृत्यता यस्य वाक्पारुष्यसुदुःखिताः । भवन्ति तस्य मो सोधयं तेषां पाश्चोद प्रजापते ॥1॥
४ तथा च गुरुः- [व] क्शापहारं सः ] प्रजानां कुहले नृपः । अन्यायेन हि वद प्रोक्स दंडपावप्यमेव च ॥१॥ संको