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स्वामी समुद्देश
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शुरू विद्वान ने कहा है कि 'कांचको मणि और मसिको कांच समझनेवाले भूर्ख राजाकी जब साधारण मनुष्य भी सेवा नहीं करता, फिर क्या विद्वान् पुरुष उसकी सेवा कर सकता है ? नहीं कर सकता ।। १ ।।'
कुटुम्ब आदि के संरक्षण में असमर्थ केवल अपनी उदर-पूर्ति करनेवाले अत्यन्त जोभी पुरुषको जब उसकी स्त्री भी छोड़ देती है, फिर दूसरे सेवकों आदि द्वारा छोड़े जानेके विषयमें दो कहना ही क्या है। अर्थात् वे वो उसे अवश्य छोड़ देते हैं ॥ १६ ॥
गुरु विद्वान्ने भो आत्मम्भरि-पेटूके विषयमें इसीप्रकार कहा है ॥ १ ॥
आलस्य सभी आपतियोंका द्वार है- आलसी समस्त प्रकार के कष्ट भोगता है ॥ १७ ॥ बादरायण विद्वानने भी कहा है कि आलसीको आपत्तियां कहीं पर भी किसी प्रकार नहीं छोड़वों ॥। १॥
उद्योग, अन्यायी, स्वेच्छाचारी, ऐश्वय-फल व राजाज्ञा---
शौर्यममर्षः शीघ्रकारिता सत्कर्मप्रवीण ॥ १८ ॥
अन्यायप्रवृत्तस्य न चिरं सम्पदो भवन्ति ||१३|| यत्किञ्चनकारी स्वैः परैर्वामिहन्यते ॥२० माझा फलमैश्वर्यम् ॥ २१ ॥ राजाज्ञा हि सर्वेषामलभ्यः प्राकारः ||२२||
अर्थ - उत्साही पुरुषों शूरता, दूसरे व्यक्तियों द्वारा अनिष्ट किये जाने पर क्रुद्ध होना, कर्तव्यशीघ्रता, व प्रशस्त कार्य चतुराई से करना ये गुण होते हैं ॥ १८ ॥ ॥
शौकन विद्वानने भी उत्साहीके उक्त सभी गुण निर्दिष्ट किये हैं ॥ १ ॥
अभ्यायी पुरुषकी सम्पत्तियां चिरकालीन नहीं होती - नष्ट हो जाती हैं ॥ १६ ॥
* विद्वान्ने भी अन्यायी सम्पत्तियोंके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥
1- काममा कार्य यो बेशि पृथिवीपतिः । सामान्योऽपि न सेवेत् किं पुनः ॥१॥ गुरु-उपार्जित पो भो याद कस्यचिचयेत् स्वयम् । चात्ममरिः स विश्वस्त्यस्यते भवपि॥१॥ पादरायणः- सास्वोपहतो यस्तु पुरुषः संप्रजायते । न्यसनानि न त स्यापि सत्य कथं ॥१॥
३ तथा
४ तवा च शौनकः— खोद कार्याकोपश्च श्रीप्रवा सर्वकर्मसु । तत्कर्मकः प्रयोगात्वमुत्साहम्य गुयाः स्मृताः ॥१u २६ अनि अन्यत्वेन प्रदुधस्य न चिरं सन्ति सम्पदः । अपि श्रोसमेतस्य प्रभूतविभवस्य च ॥१॥