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पुरोहितसमुदेश
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झूठी पहादुरी बतानेवालोंकी एवं सदार धनकी प्रशंसापूर्वक पण-धनकी क्रमशः कड़ी आलोचना
ग्राम्यस्त्रीविद्रावणकारि गलगर्जिनौं गाम्शूराणाम् ॥५१॥
स विभवो मनुष्याणां यः परोपभोग्यो न तु यः स्वस्यैवोपभोग्यो व्याधिरिव ॥५२॥ अर्थ-जो मनुष्य स्वयं डरपोक हैं किन्तु झूठी शुरता दिग्बाकर ऊपरो भय दिखाते हैं, उनके भयकर चिल्लाने से केवल प्रामीण स्त्रियाँ ही भयभीत होतो हैं, अन्य नागरिक मनुष्य नहीं ॥५१॥ मनुष्योंका वही धन प्रशंसनीय है, जो दूसरों द्वारा भोगा जासके, किन्तु जिसको धनी पुरुष रोग समान स्वयं भोगता है वह पण धन निन्ध है |२||
बलभदेव' विद्वान ने भी कहा है कि 'उस कुपण लक्ष्मीसे क्या नाम है ? जो कि कुलवधू-समान केवल उसीके द्वारा भोगी जाती है और जो सर्वसाधारण वेश्याकी तरह पथिकों द्वारा नहीं भागी जाती ॥१।।' ईर्ष्यालु शुरु, पिता, मित्र तथा स्वामीकी कड़ी आलोचना क्रमशः--
स किं गुरुः पिता सुद्धा थोऽभ्यस्ययाऽभं पहुदोष बहुषु या दोषप्रकाशयति न शिक्षयति च ॥५३॥
स कि प्रसूर्यश्चिरसेवकेप्लेकमध्यपराध न सहते ॥५४॥
अर्थ-पद गुरु, पिता व मित्र निन्छ वा शत्रु सदृश है, जो कि ईर्ष्यावश अपने पदोषी शिष्य, पत्र व मित्रके दोष दूसरों के समय प्रगट करता है और उसे नैतिक शिक्षण नहीं देता ||३||
गौतम विद्वान ने कहा है कि 'गुरुको ईर्ष्यावश अपने शिष्यके दोष बहुत मनुष्यों के समक्ष प्रकाशित नहीं करने चाहिये, किन्तु उसे हितको शिक्षा देनी चाहिये ॥१।।'
वह स्वामी निम्ध है, जो कि अपने पिरकालीन सेवकका एक भी अपराध तमा नहीं करता ॥४॥
शुक्र' विज्ञान ने भी कहा है कि 'स्वामीको सस सेवकका, जो कि भक्त होकर चिरकालसे उसकी सेवा कर रहा है, केवल एक दोष के कारण निग्रह नहीं करना चाहिये ।शा'
इति पुरोहित-समुरश।
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ताबखामदेव:-कितवा क्रिपते समस्या या भूमिव केवला । पान पेरपेन सामान्या पमिकरुपभुज्यते ॥१॥ . तपाच गौतमः-शिवा दधात् स्वविशम्पस्थ हो म प्रकाशयेत् । इण्यांगों भवेयरल प्रभूतस्य जनाम: in
समार-हिरकाबाचरो भृत्यो मतियुक्तः प्रसेवपेत् । न तस्य निग्रहः कार्पो दोपस्पैक्स्प कारणात् ।।१।।