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१२ सेनापति-समुद्दशसेनापतिके गुण-दोष व राज-सेवककी उन्नति क्रमशः
अभिजनाचारप्राज्ञानुरागशौचशौर्य सम्पन्नः प्रभाववान् , बहुबान्धवपरिवारो, निखिलनयोपायप्रयोगनिपुणः समभ्यस्तसमस्तवाहनायुधयुद्धलिपिमापारमपरिक्षानस्थितिः सकलतन्त्रसामन्तामिमतः, साझामिकाभिरामिकाकारशरीसे, भतु - रादेशाभ्युदयहितइत्तिषु निर्विकल्पः स्वामिनात्मवन्मानार्थप्रतिपत्तिः, राजविह सम्भावितः, सर्वक्लेशापाससहछ, इति सेनापतिगृणाः ॥१॥ स्वैः परैश्च प्रधृष्यप्रकृतिरप्रभाववान् स्त्रीजितत्वमौद्धत्य व्यसनिताऽयव्ययप्रवासोपहतत्वं तन्त्राप्रतीकारः सर्वैः सह विरोधः परपरीवादः परुषभाषित्वमनुचितशताऽसंविभागित्वं स्वातन्त्र्यात्मसम्भावनोपहतत्वं स्वामिकार्यव्यसनोपेथः सहकारिकृतकार्यविनाशो राजहितवृत्तिषु चालुत्वमिति सेनापतिदोषाः ॥२॥
स पिरजीवति राजपुरुषो यो नगरनापित इयानुवृधिपःX ॥शा मर्थ-जिसमें निम्नप्रकारके गुण वर्तमान हों, उसे सेनाध्यक्ष पदपर नियुक्त करना चाहिये । कुलीन, प्राचार-व्यवहार सम्पन्न, राज-विपाप्रवीस (विटा), स्वामी व सेवकोंसे अनुरक्त, पवित्रहृदय, पहुपरिवारयुक्त, समस्त नैतिक उपाय (साम-दानादि) के प्रयोग (भग्नि जल-स्तम्भनप्रति) करनेमें कुशल, जिसने समस्त हाथी, गोड़े भादि वाहन, खङ्गादिशस्त्र-संचालन, युद्ध और भिन्न देशबी भाषामोका
* इसके परचार स्वः परेरचामरप्पप्रकृतिः' इतना अधिक पाठातर मू० प्रतियों में है, जिसका अर्थ यह है कि
जिसकी प्रकृति बचानपुरुष---भारमीप-राष्ट्रीय और बाहरके शत्रुओं द्वारा पराजित न कोजासके। x इसके पश्चात् 'सर्गसु प्रकृतिषु' इतना अधिक पाठ मू० प्रतिपोमें है, जिसका मधं पूर्ववत् समझना चाहिये।
सम्पादक