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उपकार करनेमें असमर्थ की प्रसमसा-प्रादि निरर्थक कार्य क्रमशः--
अफलवता प्रसादः काशकुसुमस्येव* ॥४॥ गुणदोषावनिश्चित्यानुग्रहनिग्रहविधानं ग्रहाभिनिवेश इव ||६||
उपकारापकारासमर्थस्य नरेशोतकरणमा रविसम्बनने १०॥ अर्थ-उपकार करनेमें असमर्थ पुरुषका प्रसन्न होना फास-पासविशेष-के पुष्प समान निरर्थक है । अर्थात् नदीके तटवर्ती कास (तृणविशेष) में फूल ही होते हैं, फल नहीं होते, अतः जिसप्रकार कासका फूल निष्फल-फसा-रहिव-होता है, उसीप्रकार उपकार करनेमें असमर्थ पुरुषका प्रसार होना निष्फलमर्थ-शाभावि प्रयोजन-रहित होता है।४।।
किसी विद्वान्' ने भी कहा है कि जिस मनुष्यके असन्तुष्ट-नाराज होनेपर किसी प्रकारका मष नहीं है और संतुष्ट होनेपर धन-प्राप्ति नहीं होती व जो उपकार-अपकार नहीं कर सकता, वह नाराज होनेपर भी क्या कर सकता है ? कुछ नहीं कर सकता ॥शा'
नैतिक मनुष्यको किसीके गुण-दोषका निश्चय करके उसका क्रमशः उपकार भनुपकार करना चाहिये । अर्थात् उसे गुणकान्-शिष्ट पुरुषका उपकार और दुष्ट पुरुषका भपकार करना चाहिये, परन्तु जो इससे विपरीत प्रवृत्ति करता है-गुण-दोषका निश्चय किये बिना ही किसीके अनुप्रह-निग्रह (उपकारअपकार) में प्रवृत्त होता है, वह राहु-केतु या भूत-पिशाबके द्वारा म्यात पुरुषके समान कष्ट उठाता है। अर्थात् जिसप्रकार राहु-केतु इन अशुभ ग्रहोंसे या पिशाचादिके आक्रमणसे मनुष्य पीड़ित होता है, उसी प्रकार गुण-दोषकी परीक्षा किये बिना किसीका उपकार-मनुपकार करनेवाला मनुष्य भी अनेक कष्ट भोगता है ॥४|| जो मनुष्य अपकार करने में समर्थ नहीं है, से सन्तुष्ट करनेका प्रयत्न करना और भपकार करने में असमर्थको असंतुष्ट करना अपनी हँसी कराने के सरश है। सारांश यह है कि जिसप्रकार अपनी हँसी कराना अनुचित है, उसीप्रकार उपकार करनेमें असमर्थको सन्तुष्ट करना और अपकार करनेमें मसमर्मको असन्तुष्ट करना मनुचित है, भवः नैतिक व्यक्ति अपने उपकारीको संतुष्ट भौर अपकारीको असंतुष्ट रक्खे, जिसके परिणामस्वरूप वह संतुध से सपकार प्राप्त कर सके और असंतुष्ट से अपनी हानिका बचाव कर सके ||२०||
* 'अफसरतो नृपतेः प्रसादः काशकुसुमस्येव' इसप्रकारका पाठ म० प्रत्रियों में हैं, जिसका अर्थ राज-पचमें संवत्
समझना चाहिये। सम्पादक-- । उक्त' -पस्मिन् रुष्ट भयं नास्ति मुटे नैन धनागमो| अनुमहोनिमदो नास्ति स रुमः किं करिष्यति ॥१॥संग्रही