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दृत्तसमुद्देश
दूध तीन प्रकारके होते हैं । १ निसृष्टार्थ २ परिमितार्थ ३ शासनहर | ३ || जिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि-विमको उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह 'निसृष्टार्थ' है, जैसे पांडवोंका कृष्ण उसे भाय यह है कि कृष्णने पांडवों की ओर से जाकर कौरवोंसे विग्रह – युद्ध - निश्चित किया था, प्रमाण मानना पड़ा; श्रतः कृष्ण पाण्डयों के 'निसृष्टार्थ' राज-दून थे। इसीप्रकार राजा द्वारा भेजे र संदेश और शासन - लेख - को जैसेका तैसा शत्र के पास कहने या देनेवालेको क्रमशः 'परिमितार्थ' व ''सांसदहर' जानना चाहिये ॥ ४ ॥
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भृगु' विद्वान् ने कहा है कि 'जिसका निश्चित वाक्य सन्धिविप्रादि-अभिलषित न होने पर भी राजाद्वारा उल्लङ्घन न किया जासके उसे नीतिज्ञोंने निसृष्टार्थ' कहा है ॥ १ ॥ जो, राजाद्वारा कहा, हुआ संदेश - वाक्य- शत्रुके प्रति यधार्थ कहता है, उससे हीनाधिक नहीं कहता, उसे 'परिमितार्थ' जानना चाहिये ॥ २ ॥ एवं जो राजाद्वारा लिखा हुआ लेख यथावत् शत्रुको प्रदान करता है, उसे नीतिज्ञोंने
कहा है ॥ ३ ॥
दूत-कक्ष्य (शत्रु स्थान में प्रवेश व मस्थानके नियम आदि) क्रमश:
विज्ञातो दृतः परस्थानं न प्रविशेनिर्गच्छेद्वा ॥ ५ ॥
मत्स्वामिनाऽसंधातुकामो रिपुर्मा विलम्पयितुमिच्छतीत्यननुज्ञातोऽपि दूतोऽपसरवू गूढपुरुषान्वाऽवसर्पयेत् ॥ ६ ॥
परेणाशु प्रेषितो दूतः कारणां विमृशेत् ॥ ७ ॥
अर्थ-दूत शत्रु द्वारा अज्ञात होकर उसकी आज्ञा के बिना न तो शत्रु स्थानमें प्रविष्ट हो और न स्थान करे | सारांश यह है कि जब दूत शत्रुकी आज्ञा-पूर्वक प्रवेश या प्रस्थान करता है, तब उसे अपने मातका भय नहीं रहता ॥ ५ ॥
गुरु' विद्वान ने कहा है कि 'जो दूत शत्रु की आज्ञा बिना हो उसके स्थान में प्रवेश वा प्रस्थान करता २, पद को प्राप्त होता है ॥ १ ॥ '
कब दूसको यह निश्चय होजाये कि यह शत्रु मेरे स्वामीसे सन्धि नहीं करेगा किन्तु युद्ध करनेका
१ सभा च भृगुः पद्वाक्यं नान्यथाभावि प्रभोर्यद्यप्यमीप्सितम् । निष्पृष्टार्थः स विज्ञ ेयो दूतो नीतिविषयः ॥ १ ॥ म प्रोक्तं प्रभुखा वाक्यं तत् प्रमाय वदेच्च यः । परिमितार्थ इति यो दृतो नान्यं यवीति यः ॥ २ ॥ प्रभुदा जैखितं यच्च यत् परस्य निवेदयेत् । यः शासनहरः सोऽपि दूतो यो नयान्वितैः ॥ ३ ॥
ई. तथा च गुरुः– शत्रु योऽपरिज्ञाती दूतस्तस्स्थानमा त्रियोत् । निर्गच्छेद्वा ततः स्थानात् स वृतां वधमाप्नुयात् ॥ १ ॥