________________
११ पुरोहित-समुद्द ेश ।
पुरोहित (राज-गुरु) का लक्षण या गुण य मंत्री- पुरोहित के प्रति राजन् कर्त्तव्य क्रमश:पुरोहितमुदितोदितकुलशील' षडंगवेदे देवे निमित्ते दडनीत्यामभिविनीतमापद दीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तार कुर्वीत ॥ १ ॥
राज्ञो द्दि मंत्रिपुरोहितौं मातापितरौ श्रतस्तौ न के पुचिद्वाञ्छितेषु विस्तरयेत् ॥२॥
अर्थ- जो कुलीन, सदाचारी और छह वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द व ज्योतिष), चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोग), ज्योतिष, निमित्तज्ञान और दंडनीति विद्यामें प्रवीण हो एवं देवी (उल्कापात, अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि) तथा मानुषी आपत्तियों के दूर करने में समर्थ हो, ऐसे विद्वान् पुरुषको राजपुरोहितराज- गुरु बनाना चाहिये ॥१॥
शुक्र' विद्वान्ने भी कहा है कि गजओको देवता व आकाश से उत्पन्न हुए एवं प्रथिवीपर होनेयाले समस्त उपद्रव और सभी प्रकारको आपत्तियों (शारीरिक बुखार गलगंडादि, मानसिक, आध्यात्मिक, आधिभौतिक व्याघ्रादि-जनित पीड़ा और आधिदैविक - आकस्मिक पीड़ाएँ- आदि) को शान्तिके लिये पुरोहित नियुक्त करना चाहिये ||१||
निश्चयसे मंत्री -पुरोहित हितैषी होनेके कारण राजाके माता-पिता है, इसलिये उसे उनको किसी भी अभिलषित पदार्थ में निराश नहीं करना चाहिये ||२||
गुरू* विधाने भी कहा है कि 'मंत्री-पुरोहित राजाके माता-पिता के समान है, अतः वह उन्हें किसी भी प्रकार से मनचाहे पदार्थों में आशा-हीन (निराश) न करे ॥१॥
१ तथा च शुकः – दिव्यान्तरिच भौमानामुत्पातानां प्रशान्तये । तथा सर्वापदां चैव कार्यो भूपैः पुरोहितः ०१ ॥
A उक्त क्रियापदके स्थान में प्रायः सभी मू० प्रतियों में 'विसूश्येत् दुःखये दुर्विनयेा ऐसा उत्तम पाठान्तर वर्तमान है, जिसका अर्थ क्रमशः प्रतिकूक, दुःखी और अपमानित करना है, शेष अर्थ पूर्ववत् है ।
२ तथा च गुरुः- सी मातृपितृभ्यां च राशो मंत्री पुरोहितों। अतस्तौ वाञ्छितैरथैनं कथंचिद्विस्तरमेत् ॥१॥