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पुरोहितसमुद्देश
प्रविष्ट हुए पुरुषोंकी प्रवृत्ति व महापुरुषका लक्षण क्रमश:परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्यायते ||३१||
स खलु मद्दान् यः स्वकार्येष्विव परकार्येषूत्सहते * ||३२||
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अर्थ- सभी मनुष्य दूसरोंके गृह में आकर उसका धनादि व्यय करानेके लिये विक्रमादित्य राजाकी बहार होजाते हैं--धनाढ्योंका अनुकरण करने लगते हैं ||२१|| जो अपने कार्य समान दूसरोंके साहपूर्वक करता है, वही महापुरुष हैं ||३२||
मादीमसिंह सूरिने कहा है कि 'परोपकारी सज्जन पुरुष अपनी आपत्तिपर दृष्टि नहीं डालते ॥ ३ ॥ ' दूसरोंके कार्य साधनमें लोकप्रवृत्ति जैसी होती है
परकार्येषु को नाम न शीतलः ॥ ३३ ॥
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--कौन पुरुष दूसरोंके कार्य साधनमें ठंडा - भालसी ( उद्योग-शून्य ) नहीं होता ! सभी २३ ॥
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राज-कर्मचारी- प्रकृति, धनिक कृपणों की गुणगानसे हानि व धनाभिलाषीको संतुष्ट करना क्रमशः - राजासकाः को नाम न साधुः ॥ ३४ ॥
अर्थपरेष्वनुनयः केवल द न्याय ॥ ३५ ॥ को नामार्थार्थी प्रणामेन तुष्यति || ३६ ||
-कौनसा राज-कमचारी राजाके समीप जाकर सज्जन नहीं होता ? सभी होते हैं। द्वारा कि ये लोग दंड-भवसे कृत्रिम सज्जन होते हैं, न कि स्वाभाविक ||३४|| प्रयोजन-घरा धनाढ्य कृपअनुनय (गुण गान-व्यादि) करनेसे केवल दोनता ही प्रगट होती है, न कि अर्थ-लाभादि प्रयोजनहै। कौन घनाभिक्षाषी पुरुष केवल प्रणाम मात्रसे सन्तुष्ट होता है ? कोई नहीं ||३६||
महान् यः स्वकार्येषु उत्सहते इसप्रकार मू० प्रतियोग पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो अपने नमें उत्साह रखता है वही महापुरुष है परन्तु सं०टी० पुस्तकका पाठ उत्तम व हृदयप्रिय है । संपादकहसूरिः – स्वापद न हि पश्यन्ति सन्तः पारावत्पराः ॥३॥ छत्रचूडामणौ