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नीतिवाक्यामृत
अर्थ - शिष्यको गुरुकी पिताके सदृश सेवा करनी चाहिये ||२४||
भारद्वाज' विद्वान् ने कहा है कि 'जो छात्र गुरुकी पिताके समान भक्ति करता है, वह समस्त विधाएं प्राप्तकर ऐहिक व परलौकिक सुख प्राप्त करता है ||१||
शिष्य गुरु-पत्नीको माताके समान पूज्य समझे ||२५||
यावल्क्य विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो छात्र गुरु-पत्नीको भोग-लालसासे देखता है, वह नरक जाता है और उसे विद्या प्राप्त नहीं होती ||१|| '
छात्र गुरु-पुत्रको गुरुके सदृश पूज्य समझे ||२६||
वादरायण' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो शिष्य गुरु-पुत्र की गुरु के समान सेवा करता है, उसके लिये गुरु प्रसन्न होकर अपनी समस्त विद्या पढ़ा देता है || १ ||
arrant अपने सहपाठी ब्रह्मचारीसे बन्धुकी तरह स्नेह करना चाहिये ||२७||
विद्वान ने भी कहा है कि 'जिसप्रकार भाईसे स्वाभाविक प्रेम किया जाता है, उसीप्रकार शिष्य को अपने सहपाठी विद्यार्थीके साथ स्वाभाषिक प्रेम करना चाहिये ||१||
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शिष्यकर्तव्य (ब्रह्मचर्य व विद्याभ्यास ) व अतिथियोंसे गुप्त रखने योग्य बात क्रमशः-ब्रह्मचर्य भाषोडशाद्वर्षात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म वास्य समविद्य: सहाधीत सर्वदाभ्यस्येत् ||२६|| गृहदौःस्थित्यमागन्तुकानां पुरतो न प्रकाशयेत् ॥ ३० ॥
अर्थ – छात्र सोलह वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य व धारण करें, पश्चात् इसका गो-दानपूर्वक विवाह-संस्कार होना चाहिये ||२८|| ब्रह्मचारी छात्रको सहपाठियोंके साथ पढ़े हुए शास्त्रका सदा अभ्यास करना चाहिये ||२६|| नैतिक मनुष्यको अपनी गृह-विपत्ति ( दरिद्रता आदि ) अतिथियोंके समक्ष प्रकाशित नहीं करनी चाहिये ॥३०॥
१ तथा च भारद्वाजः – योऽन्तेवासी विद्वद् गुरोर्भक्तिं समाचरेत्। स निय प्राप्य निःशेषां खोयमवाप्नुयात् ॥१॥ २ तथा च याज्ञवस्त्रयः---गुरुमाय यः पश्येद्दृष्ट्या पात्र सकामया । स शिष्यो नरकं याति न विद्यामवाप्नुयात्॥ १ ॥ ३ तथा च वादरायणः -- यथा गुरु तथा पुत्रं यः शिष्यः समुपाचरेत् । [दस्य रुष्टो गुरुः कृत्स्नां] निजां वियाँ निवेदयेत् ॥ १॥ तृतीय चरया संशोषित | संपादक-तथा मनुः यथा भ्रातुः प्रकय: [स्नेोऽत्र निनिबन्धनः । । वषा स्नेहः प्रकर्तव्यः शिष्येण मह्मचारिष्यः ॥ द्वितीय चरक संशोधित व परिवर्तित | सम्पादक
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