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मन्त्रसमुद्र श
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शक्ति न जानकर वलिष्ठ शत्रुके साथ युद्ध करनेसे दानि व आपदूमस्त राजाका धर्म क्रमश:आत्मशक्तिमज्ञानतो विग्रहः क्षयकाले कीटिकानां पञ्चोत्थानमिव ।। १४८ ॥ कालमभमानोऽपकर्तरि साधु वर्तत ॥ १४६ ॥
-ओ राजा अपनी सैनिक व कोश- शक्तिको न जानकर वलवान् शत्रुके साथ युद्ध करता है, माकाल पतनोंके पङ्ग उठानेकी तरह अपना नाश कर डालता है। सारांश यह है कि अब नाशकात जाता है-जब वे दीपककी लोंमें जल-भुनकर मरने लगते है—उससमय अपने कार राजाका जब विनाशकाल आता है, उस समय उसकी बुद्धि बलवान् शत्रुके साथ करने पर होती है ॥ १४८ ॥ गुदाने कहा है कि 'जिसप्रकार मदोन्मत्त हाथी अचल (द) और बहुत ऊंचे पहाड़को करता है, तब उसके दाँत (खीसे) टूट जाते हैं और वापिस लोट जाता है, उसीप्रकार जो राजा पति से स्थिर, वृद्धिंगत तथा बलवान् शत्रु के साथ युद्ध करता है, उसे भी अपनी शक्ति नह सौटना पड़ता है ॥ १ ॥
विजिगीषुको जब तक अनुकूल समय प्राप्त न हो, तब तक उसे शत्रुके साथ शिष्टताका व्यबहार जाने-उससे मैत्री कर लेनी चाहिये । सारांश यह है कि बिजिगोधुको हीनशक्तिके साथ युद्ध और शकिदुकके साथ सन्धि करनी चाहिये ।। १४८ ॥
रवि कहा है कि 'विजिगीषुको वलिष्ठ शत्रु देखकर उसकी आज्ञानुसार चलना चाहिये, शक्ति-संचित होजाने पर जिसप्रकार पत्थर से घड़ा फोड़ दिया जाता है, उसीप्रकार शत्रुको कर देना चाहिये ॥ १३॥
पाका दृष्टान्त-माला द्वारा समर्थन व अभिमान से हानि क्रमशः --
किन्तु खलु लोको न वहति मूर्ध्ना दग्धुमिन्धनं ॥ १५० ॥
४. मदीयस्तरूणामंड्रीन चालयमप्युन्मूलयति ॥ १५१ ॥ उत्सेको हस्तगतमपि कार्यं विनाशयति ।। १५२ ॥
धर्य मनुष्य ईंधनको भाग में जलानेके उद्देश्य से क्या शिर पर धारण नहीं करते ? अगर करते है कि जज्ञाने योग्य ईधनको शिर बहन के समान पूर्वमें शत्रुसे शिष्ट व्यवहार करना पश्चात् अवसर पाकर शक्ति-संचय होनेपर उससे युद्ध करना चाहिये ॥ १५० ॥
गुरुः प्रोच योऽत्र हिपु' याति यथा । शीदन्तो विस स यथा मश्ववाराः १ -रिपुष्ट्रातस्य इन्दोऽनुपसंवेत् । यच्चास्यास पुनस्तं च भिम्यात् कुभमिवाश्मा ॥१॥