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मन्त्रिसमुद्देश
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नीति-शून्य पुरुषकी हानि व कृतघ्न सेवकों की निन्दा क्रमश:-- विध्यायतः प्रदीपस्येव नयहीनस्य वृद्धिः ॥ १६१ ॥ जीवोत्सर्ग' : स्वामिपदमभिलषतामेव B ॥ १६२ ॥
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भागुरि विद्वान ने कहा है 'जो बक्ता उसकी बात न सुननेवाले मनुष्य के सामने बोलता है वह मूर्ख हैं, क्योंकि वह निसन्देह जंगलमें सेवा है ॥१॥
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अर्थ-नीति-विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषकी बढ़ती तत्काल बुझते हुए दीपककी बढ़तीके समान उसको जड़-मूलसे नष्ट करनेवाली होती है। अर्थात् जिसप्रकार बुझनेवाला दीपक अधिक प्रकाश करके समूल नष्ट हो जाता है, इसीप्रकार अन्यायी मनुष्य भी अन्याय-सचित धनादिसे तत्काल उन्नतिशीलमा मालूम पड़ता है, परन्तु राजदंड-भादिके खतरे से खाली न होनेके कारण अन्तमें यह बढ़-मुखसे नष्ट हो जाता है || १६१ ।।
नारद * विद्वान ने भी कहा 'च्यो को भी पग़ैरह अन्याय से बढ्यो होती है उसे चुकनेवाले दीपककी बढ़ती के समान विनाशका कारण समझनी चाहिये ।।१म "
जो सेवक – श्रमात्य आदि - कृतघ्नता के कारण अपने स्वामीके राज्यपदकी कामना करते हैं, इनका विनाश - मरण होता है। सारांश यह है कि सेवकोंको अपने स्वामी पर ( राज्यपद ) की कामना नहीं करनी चाहिए || १६२ ||
तीव्रतम अपराधियों को मृत्यु-दंड देने से लाभ व जुब्ध राज कर्मचारी क्रमशः -
चहुदोषेषु दुःखमदोऽपायोऽनुग्रह एव ॥ १६२॥
स्वामिदोषस्यदोषाभ्यामुपहतवृत्तयः क्रुद्ध-हृम्भ- मीतावमानिताः कस्याः || १६४||
१ मा च भागुरिः मोतुः पुरतो वाक्य' यो वरेविधयः । A 'विध्यायः प्रदीपस्येव ममहीनस्य बुद्धिः' ऐसा पाडार सुरु कि मिलमकार शुकनेवाले या बहुत धीमी रोडनीयाचे दीपकका पुरुषकी पूजिका कोई उपयोग प्रादि-गी है।
अर्थ — दीनतम अपराधियोंका विनाश राजाको प्रथभरके लिये कष्टदायक होता है, परन्तु यह उसका उपकार ही समझना चाहिये, क्योंकि इससे राज्यकी श्रीवृद्धि होती है ॥१६३||
चदि सोआ कुरले मात्र वाचः ॥१॥
हु०शि० सू० प्रतिबरें है, जिसका अर्थ ह कोई उपयोग नहीं है, अमर चन्यावी
'B 'ओबोत्सर्गः स्वाप्रियममिकतामेव' इस प्रकार मु० ६० शि० सू० प्रतियो पाठान्तर है। जिसका मह कि राजकों उसका बुरा चाहनेवाल विरोधियोंका नाश कर देना चाहिये।
२] च नारदः - कर्मादिभिः समुद्रियां पुरुषायां प्रभाषते । ज्योतिष्कस्येच सा विकास उपस्थिते ॥१॥