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POLSR 411004
नोतिया मृत
शुक' विद्वान ने भी कहा हैं कि 'जिसप्रकार मनुष्य लकड़ियोंको जलाने के उद्देश्य से पहले उन्हें अपने मस्तक पर वहन करता है, उसीप्रकार विजिगीषुको पूर्व में शत्रुको सम्मानित करके पश्चात् शक्ति-संचय करके उसका वध करना चाहिये ।। १ ।।'
नदीका वेग (प्रवाह) अपने तटके वृक्षोंके धरण - जड़ें प्रचालन करता हुआ भी उन्हें जड़ से उखाड़ देवा है । सारांश यह है कि उसीप्रकार विजिगोपका कर्तव्य है कि वह शत्रु के साथ पूर्व में शिष्ट व्यवहार करके पश्चात् उसके उन्मूलन में प्रवृत्ति करे || १५१ । ।'
शुक्र विज्ञान भी कहा है कि 'जिसप्रकार नदोका वेग-प्रवाह - घटवर्ती वृत्तोंके पाद-ज घोटा हुआ भी उनका उन्मूलन करता है, उसीप्रकार बुद्धिमानोंको पहले शत्रुओंको सन्मानित करके पश्चात् वध करना चाहिये ॥ १ ॥
अभिमानी पुरुष अपने हाथमें आये हुए कार्य -- सन्धि आदि द्वारा होनेवाले अर्थ साभादि प्रयोजन- को नष्ट कर डालता है ।। १५२ ॥
शुक्र * विद्वान् ने भी कहा है कि 'विजिगीषुको शत्रुसे प्रिय वचन बोलना चाहिये और बिलाब की तरह करनी चाहिये परन्तु जब शत्रु इसके ऊपर विश्वास करने लगे, वथ जिसप्रकार विलाब मौका पाकर चूहेका छनन कर देता है, उसीप्रकार इसे भी उसका हनन कर देना चाहिये ॥ १ ॥
- विनाशके उपायको जाननेवालेका लाभ, उसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन व नैतिक कर्तव्य
नापं महद्वापक्षेपोपायज्ञस्य A ।। १५३ ।।
नदीपूरः सममेवोन्मूलयति [ तीरजणांड्रियान् ] ॥ १५४ ॥ धुक्तमुक्त' चचो बालादपि गृह्णीयात् ।। १५५ ।।
अर्थ - शत्रु विनाशके उपाय- सन्धिविग्रहादि - ज्ञाननेवाले विजिगीवके सामने म हीनशक्ति शत्रु ठहर सकता है और न महाशक्तिशाली || १५३||
शुक्र विद्वान ने भी कहा है कि 'जो राजा शत्रु बधके उपाय भलीभाँति जानता है, उसके सामने
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1 तथा च शुक्रः- दग्धु वहसि काहानि तथापि शिरसा नरः । एवं माम्योऽपि चैरी यः परचाभ्यः स्वक्तितः ॥१॥ २ तथाच शुक्रः पालयन्नपि वृक्षांही श्रदीवेगः प्रणाशयेत् | पूजयिस्यापि महुश्च शुध्द विचकैः ॥ ॥
उतस्त ं तु निपातवेद | n
३ तथा च शुक्रः— वचनं कृपणं प्रयात् कुर्यान्मार्जारवेष्ठितम् । विश्वस्त A 'गापं महद्वाप्यकोपोपायशस्य' इसप्रकार मु० व ६० शि० म्० प्रतियों में पाठान्तर है, जिसका अर्थ यह है कि जो अति क्रोध शान्ति के उपाय - सरसह व नैतिकशान आदि से अनभिज्ञ है, उसे 'यह शत्रु महाबू- प्रचुरशी है अथवा लघु-मशक्ति युक्त है' इस प्रकारका विषेक नहीं होता।
७ तथा शुक्रः — वधोपायान् विजानाति शत्र खां पृथिवीपतिः । तस्याप्रे च महा शत्र, स्तिजसे न कुतो धुः ॥ १ ॥