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नीतिवाक्यामृत
वर्ग
ने कहा है कि 'क्षत्रियका क्षात्रतेज रोकने पर भी प्राय: करके युद्ध करनेके लिये प्रवृत्त करता है; इसलिये उसे मंत्रणा के कार्य में नहीं रखना चाहिये || १ ||'
क्षत्रियोंकी प्रकृति
शस्त्रोपजीविनां कलहमन्तरेण भक्तमपि शुक्त' न जीर्यति ॥ १०३ ॥
अर्थ-शस्त्रों से जीविका करनेवाले (क्षत्रियों) को लड़ाई किये बिना स्वाया हुआ भोजन भी नहीं पचता; अतः हृत्रिय लोग मंत्री पद के योग्य नहीं ।। १०३ ।।
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भागुरि विद्वानने भी कहा है कि 'शस्त्रोंसे जीविका करनेवाले क्षत्रियों को किसी के साथ युद्ध किये बिना पेटका अन भी नहीं पच पाता ॥ ५॥
गर्व - अभिमान - करनेयरले पदार्थ -
- मंत्राधिकारः स्वामिप्रसादः शस्त्रोपजीवनं चेत्येकैकमपि पुरुषमुसेत्कयति किं पुनर्न
समुदायः ।। १०४ ॥
अर्थमंत्री पद की प्राप्ति, राजाकी प्रसन्नता व शस्त्रोंसे जीविका करना (क्षत्रियपन) इनमें से प्राप्त हुई एक २ वस्तु भी मनुष्यको उन्मत्त - अभिमानी बना देती है, पुनः क्या उक्त तीनों वस्तुओं का समुदाय उन्मत्त नहीं बनाता ? अवश्य बनाता है ॥ १०४ ॥
शुक विद्वानने कहा है कि 'राजाकी प्रसन्नता, मंत्री पदका मिलना और क्षत्रियपन इनमें से एक १ वस्तु भी मनुष्यको अभिमान पैदा करती है, पुनः जिसमें ये तीनों हों उसका तो कहना ही क्या है ? ॥ १ ॥ ' अधिकारी (मंत्री वगैरह ) का स्वरूपनालम्पटोऽधिकारी ॥। १०५ ।।
अर्थ- जो मनुष्य निःस्पृद्द (धनादिकी चाह नहीं रखनेवाला) होता है, वह अधिकारी (मंत्री आदि कर्मचारी) नहीं होसकता | सारांश यह है कि अमात्य भारि कर्मचारी अवश्य धनादिकी लाकसा रकलेगा ।। १०५ ।।
वल्लभदेव विद्वान्ने भी कहा है कि 'धनादिकी चाह न रखनेवाला व्यक्ति मंत्री आदि अधिकारी नहीं होता, बेष-भूषासे प्रेम रखनेवाला काम-वासनासे रहित नहीं होता, मूर्ख पुरुष प्रियवाही नहीं होता और स्पष्टवादी धोखेबाज नहीं होता ॥ १ ॥'
१ तथा च वर्ग:-- त्रियमाणमपि प्रायः छात्रं तेजो विवर्धते । युद्धार्थ तेन संस्याज्यः छत्रियो मंत्रकसंयि ॥ १ ॥ २ तथा च भाविः शस्त्रोपजीविनाममुदरस्थं न जीति । यावत् केनापि नो युद्धं साधुनापि समं भवेत् ॥ १ ॥ ३ तथा च शुक्रः— नृपप्रसादो मंत्रित्वं शस्त्रीभ्यं स्मयं क्रियात् । एकैकोऽपि नरस्यात्र किं पुनमंत्र से श्रयः ॥ १ ॥ * 'मम्पो अधिकारी भवति' ऐसा मु० मु० प्रति में पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि स्त्री व धनादिका क्षोभी पुरुष अधिकारी मंत्रो आदिके पदमें नियुक्त करने योग्य नहीं है।
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४ तथा च बल्लभद्देवः -- निःस्पृहो नाभिकारी स्वावाकामी मदतप्रियः । माविदुग्धः प्रियं मयात् स्फुटवक्ता न चकः । १