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मन्त्रिसमुश
जैमिनि विद्वान ने कहा है कि जिसप्रकार लोकमें टूटा हुआ पाषाण-कण पुनः जुड़ नहीं सकता, असीमकार पूर्व के कारण दूपित-प्रतिकूलताको प्राप्त हुआ-शत्र का चित्त पुनः अनुराग-युक्त नहीं होसकता है। जिस कारण से स्नेह नष्ट होता है
न महत्ताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो यथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण ॥११३॥ अर्थ-महान् उपकारसे भी मनमें उतना अधिक स्नेह उपकारीके प्रति नहीं होता, जितना अधिक मन थोडासा अपकार (द्रोह आदि) करने से फट जाता है ॥११३॥
बादरायण' विधाम्ने भी कहा है कि 'लोकमें थोड़ासा अपकार करनेसे जैसा अधिक बैर-विरोध प्रस्पन्न होजाता है, वैसा बहुत उपकार करनेसे भो स्नेह नहीं होता ॥१॥ शत्रुनों के कार्य
सूचीमुखसवबानपकृस्थ विरमन्त्यपराद्धाः ॥११॥ अर्थ--शत्रु लोग दृष्टि-विषवाले सर्पकी तरह अपकार किये विना विभाम नहीं लेते ॥११४॥
भृगु' विद्वान ने कहा है कि जिस प्रकार दृष्टिविष-युक्त सर्प देखने मात्रसे अपकार (जहर पैदा करके मारना) पैदा करता है, उसीप्रकार सभी शत्रु लोग भी अपकारसे रहिस नहीं होते, अर्थात ये भी महान अपकार करते हैं ॥१॥ काम-धेग से हानि
अतिवृद्धः कामस्तभास्ति यत्र फरोति ॥११॥ पर्य-कामी पुरुष अत्यन्त बढ़ी हुई कामवासना के कारण संसारमें ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसे नहीं करता । अथात् सभी प्रकार के निंदनीय व धूणित कार्य करता है ।। ११५ ।। उक्त बातका पौराणिक दृष्टान्तमाला द्वारा समर्थन
श्रूयते हि किल कामपरवशः प्रजापतिरात्मद् हितरि, हरिगोपषधू प, हर: शान्तनु
कलत्रेषु, सुरपतिस्तमभार्यायां, चन्द्रश्च बृहस्पतिपरन्यां मनरचकारेति ॥११६|| अर्थ-पुराणों में प्रसिद्ध है फि माजी कामके वशीभूत होकर अपनी सरस्वती नामकी पुत्री में, उष्ण
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। तथा च जैमिनिा-पापाणघटितस्पात्र सन्धिर्भग्नस्य मो यया । कंकणस्पेच चित्तस्प तया दूषितस्य च ||15 २ तथा बादरायणः-न तथा जामते स्नेहः प्रभूतः सुकृतेः । स्वरुपेनाध्यपकारेण पगार प्रजायते ॥३॥ ३ तथा च भूगुः-पो शिविषः सर्पो एएस्तु विकृति भजेत् । तथापराधिमः सन शुविहतिवर्मियाः ॥१॥