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मन्त्रिसमुदेश
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धन-लम्पट राज-मन्त्रीसे हानि
मैत्रिणोऽर्थग्रहणलालसायां मतौ न राज्ञः कायमों पा ॥ १०६ ।। अर्थ-जिसके मंत्रीकी बुद्धि धन ग्रहण करने में लम्पट-आसक्त होती है, उस राजाका न सो कोई कार्य ही सिद्ध होता है और न उसके पास धन ही रह सकता है ।। १०६ ॥
गुरु 'विद्वामने कहा है कि जिस राजाका मंत्री धन-ग्रहण करनेकी लालसा रखता है। उसका कोई भी राज-कार्य सिद्ध नहीं होता और उसे धन भी कैसे मिल सकता है ? नहीं मिल सकता ॥१॥ उक्त वातकी दृष्टान्त द्वारा पुष्टि
वरणार्थ प्रेषित इव यदि कन्यां परिणयति तदा वरयितुस्तप एव शरणम् ॥ १०७ ॥ अर्थ-जब कोई मनुष्य किसीकी कन्याके साथ विवाह करनेके उद्देश्यसे कन्याको देखने के लिये अपने संबंधी (मामा, बंधु, चाचा और दूत-आदि) को भेजता है और वह वहाँ जाकर स्वयं उस कन्याके साथ यदि अपना विवाह कर लेता है, तो विवाहके इच्छुक उस भेजनेवालेको तपश्चर्या करनी ही श्रेष्ठ है, क्योंकि स्त्रीके विना तप करना उचित है। प्रकरणमें उसीप्रकार जिस राजाका मंत्री धन-लम्पट है, उसे भी अपना राज्य छोड़कर तपश्चर्या करना श्रेष्ठ है; क्योंकि पनके बिना राज्य नहीं चल सकता और धनकी प्राप्ति मंत्री-आदिको सहकारितासे होती है ॥ १० ॥
शुक' विद्वान्ने कहा है कि 'जिस राजाका मंत्री कुचेके समान शाहित सञ्जनोंका मार्ग (टेक्स-श्रादिके द्वारा प्राप्त धनकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा-आदि) रोक देता है, उसकी राज्य-स्थिति कैसे रह सकती है १ नहीं रह सकती ॥१॥ उक्त पातका अन्य दृष्टान्त द्वारा समर्थन
स्थाल्येव भक्त चेत् स्वयमरनाति कुतो भोपसुतिः ।।१०८॥ अर्थ-यदि थाली अन्न-आदि भोजनको स्वयं खावे, तो खानेवालेको भोजन किसप्रकार मिल सकता है ? नहीं मिल सकता। उसीप्रकार यदि मंत्री राज्य-द्रव्यको स्वयं हड़प करने लगे तो फिर राज्य किसप्रकार चल सकता है ? नहीं चल सकता ।। १०८ ॥
विदुर विद्वान्ने कहा है कि 'जिस गायके समस्त दूधको उसके वचने वाला देकर पी वाला है, सब उससे स्वामीकी वृप्तिके लिये लांब फिसप्रकार उत्पन्न होसकती है, नहीं होसकतो. इसी प्रकार अब राज-मंत्री राजकीय समस्त धन हड़प कर लेता है, तब राजकीय व्यवस्था (शिष्टपालन-दुष्ट
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सया च गुरु:-यस्य संजायते मंत्री वित्त महणलालसा सस्य कार्य म सिदयेत् भूमिपस्य कुतो धनं." २वा व शुक्रा-मिस्पति सतां मार्ग सयमाभिस्य शंकिता खाकारः सधिको यस्य तस्य राज्यस्थितिः कुतः ३ तथा च विदुरः- दुग्धमाकम्प चाभ्येन पीतं वत्सेन गा यदा । तदा व वस्तस्माः स्वामिमस्याप्तये मकेतू ॥.
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