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के नीतिवाक्यामृत है
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ने कहा है कि 'पापीको पापका उपदेश देनेवाले लोग बहुत हैं जो स्वयं पाप
की प्राई नाशुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः ॥३६॥ र पुरुषोंको प्राणों के कण्ठगत-मरणोन्मुख होने पर भी पापकार्यमें प्रवृत्ति नहीं
अवस्थाका तो कहना ही क्या है? पुरुष स्वस्थ अवस्थामें पापोंमें क्रिप्त प्रकार प्रवृत्ति कर सकते हैं १ नहीं
म भी उक्त यातका समर्थन करता है कि 'बुद्धिमानोंको अपने प्राणों के त्यागका अवसर
नहीं करना चाहिये; क्योंकि उससे इस लोकमें निन्दा और परलोकमें अधम
म
स्वार्यवश धनादयोंको पापमार्गमें प्रवृत्त कराते हैं इसका कथन करते हैं :सम्यसनतर्पणाय धूतेंदुरीहितवृत्तयः क्रियन्ते श्रीमन्तः ॥४०॥ ग (ठग) अपने व्यसनों-खोटी आदतोंकी पूर्ति करनेके लिये अथवा अपनी आपत्ति मलयोको पापमार्ग में प्रवृत्ति कराते हैं।
ठग लोग धनाढ्यों को परस्त्रीसेवन और मनापान आदि पापकर्मों में प्रेरित कर देते हैं से पनादिककी प्राप्ति होती है, जिससे उनकी स्वार्थसिद्धि के साथ र आपत्तियाँ दूर
पाठ्य पुरुषोंको धूतोंके बहकायेमें पाकर पापमार्गमें प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ||४|| सिका फल बताते हैं :--
खलसंगेन किं नाम न भवत्यनिष्टम् ॥४१॥ टोंकी संगतिसे मनुष्यको कौन २ से कष्ट या पाप नहीं होते ? सभी होते हैं ।।४।।
सस्य लोका: पारोपदेशका: । च ये पाप तदर्थ प्रेरयन्ति च ||५||
माधुर्म कर्म प्राणत्यागेऽपि संस्थिन। यतो निदा परलोकेऽधमा गतिः ॥१॥ किं नाम न करोति ?' ऐसा मा मृ०३० में पाट है परन्तु अर्थभेद कुछ नहा है।