________________
* नीतिवाक्यामृत
किये हुए पदार्थों-धूम आदि हेतुरूप वस्तुओं के आधारसे उनका ज्ञान होने से -- (निका पूर्वनिश्चित धूमादि साधनोंके साथ अविनाभाव संबंध है ऐसे अग्नि आदि साध्यरूप प्रकार निश्चय करना उसे 'ऊह' कहते हैं ॥५१॥
८७
महापुरुषोंके उपदेश और प्रबल युक्तियों द्वारा प्रकृति, ऋतु और शिष्टाचारसे विरुद्ध पदार्थों-अनिष्टभोजन और परस्त्रीसेवन आदि विषयों में अपनी हानि या नाशकी संभावना - निश्चय करके उनका त्याग करना यह 'अपोह' नामका बुद्धि गुरु है।'
मात्रार्थ:- परस्त्रीसेवन आदि दुष्कृत्य आगम और अनुमान प्रमाणसे विरुद्ध है; क्योंकि इनमें प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य रावण आदि की तरह ऐहिक - राजदंड आदि और पारलौकिक नरकादिके भयङ्कर दुःखोंको भोगता है, अत एव नैतिक पुरुष इनमें अपनी दानि या नाशका निश्चय करके उनका त्याग करता है यह उसका 'अपोह' नामका बुद्धिगुण है ॥५२॥
अथवा किसी पदार्थ के सामान्यज्ञानको ऊह और विशेषज्ञानको अपोह कहते हैं, उदाहरण में जलको देखकर 'यह जल है' इसप्रकारके साधारण ज्ञानको 'क' और इससे प्यास बुझती है इसप्रकारका विशेष ज्ञान होना 'अपोह' है ।। ५३ ।।
उक्तविज्ञान, ऊह और अपो आदिके संबंधसे विशुद्ध हुए 'यह ऐसा ही है अन्य प्रकार नहीं है' इसप्रकारके दृढ़ निश्चयको 'तत्वाभिनिवेश' कहते हैं || ५४ ||
भगवज्जिनसेनाचार्यने' भी उक्त आठ प्रकार के श्रोताओंके सद्गुणोंका उल्लेख किया है कि शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, कह, अपोइ और निर्णीति ये श्रोताओंके गुण जानने चाहिये ||१|| अब विद्याओंका स्वरूप बताते हैं:
---
याः समधिगम्यात्मनो हितमबैत्यहितं चापोहति ता विद्याः ॥ ५५||
अर्थ :- मनुष्य जिन्हें जानकर अपनी आत्माको हित-सुख और उसके मार्गकी प्राप्ति तथा महितदुःख और उसके कारणों का परिहार – याग — करता है उन्हें विद्याएँ कहते हैं ।
निष्कर्ष:- ओ सुख की प्राप्ति और दुःखोंके परिहार करनेमें समर्थ है उसे सत्यार्थं विद्या समझनी चाहिये और जिसमें उक्तगुण नहीं है वह अविद्या है ||५५६
१ शुभूषा भवणं चैन महणं कारणं तथा ।
स्मृत्यू हापोह नियती भोतुरही गुन्दान् विदुः ॥ १ ॥
श्रादिपुराण पर्व १ श्लोक १४६ ।
२ 'यां समधिगम्य' इसप्रकार सु० सू० वाड*● प्रतियों में पाठ है परन्तु श्रर्थभेद नहीं है, केवल एकवचन बहुवचन का ही मेद है।