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* नीतिवाक्यामृत *
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Minisawitam
मयुत राजाकी कड़ी आलोचनाः
सकि राजा यो न रचति प्रजाः ॥२१॥ को अपनी प्रमाको रक्षा-पालन-नहीं करता, वह राजा निध है। मास विहान्ने भी लिखा है कि 'ओ राजा विषयभोगोंमें आसक्त होकर अपनी प्रजाका पालन
नहीं करता, वह राजा नहीं किन्तु कायर पुरुष है ॥१॥ निकाय:-राजाको अपनी प्रजाफी रक्षा भलीमा परनी चाहिये । ले ९ धर्मका उल्लंघन करनेवालोंके साथ राजाका कर्तव्यःधर्ममतिकामतां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः ॥२२॥
यदि प्रामण-आदि वर्ण और ब्रह्मचारी-आदि आश्रमके सर लोग अपने २ धर्मका उल्लेपन स समय उनको रोकने के लिये राजा ही समर्थ होता है ।।२२।। विज्ञामने लिखा है कि 'जिस प्रकार महावत उन्मत्त हाथीको अंकुशकी शक्तिसे उन्मार्गपर नेता है उसी प्रकार राजा भी लोगोंको उन्मार्गपर जानेसे रोक लेता है-२४ शक्तिमे उन्हें पर मारूद कर देता है ॥शा प्रजाका पालन करनेवाले राजाका धार्मिक लाम--
परिपालको हि राजा सर्वेषां धर्मषष्टांशमवाप्नोति ॥२३॥
-जो राजा समस्त वर्णाश्रम-धर्मकी रक्षा करता है वह उस धमेके छठे भागके फलको वा ॥॥
'विद्वान्ने लिखा है कि जो राजा समस्त वर्णाश्रम-धर्मकी रक्षा करता है-जुम ना होनेसे - उस धर्म के छठवें अंशके फलको निरमंदेह मान होता है ।।१।।'
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तवा म्यासा:१. योमरामा प्रजाः सम्यामोगासक्तः प्ररक्षति । : राजा नैव रामा स्यात् स र कापुरुषः स्मृतः ॥१॥
या समगुः:- . म यया नाम महामन्तो निचारयेत् । मागेण मगच्छन्तं तच्चैव जन पः ॥३॥ परिपालको वि राजा सवा धर्माशा बहाशमाप्नोति साम, म. स्नक में पाट है, परम्नु अर्थ-भेद
नहीं। सदाय मनुः :
पोभमाया यो धर्म नश्यन्तं च प्ररक्षति । । तस्य श्मस्वस प्राप्मोति न संशयः ॥1॥