________________
१६६
444444 444..
नीतिवाक्याभूत
३ देश और कालका विभाग - अमुक कार्य करने में अमुक देश व अमुक काल अनुकूल देश और काल प्रतिकूल है। इसका विभाग (विवार) करना मंत्रका तीसरा अङ्ग है, अथवा अपने दे देश (दुर्ग आदि बनाने के लिये जनपद के बोचका देश) और काल - सुभिक्ष-दुर्भिक्ष तथा यथा । ए दूसरेके देश में सम्धि आदि करनेपर कोई उपजाऊ प्रदेश और काल -- आक्रमण करने या न करने का समय कहलाता है, इनका विचार करना यह देश-काल विभाग नामका तीसरा मन्त्राङ्ग कहलाता है ।
किसी विद्वान् ने कहा है कि जिसप्रकार नहीं की मछली जमीनपर प्राप्त होनेसे नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार राजा भी खोटे देशको प्राप्त होकर नष्ट होजाता हैं ||१|| '
श्रा
जिसप्रकार की रात्रि के समय और उल्लू दिन के समय घूमता हुआ नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार राजा भी वर्षा काल आदि खोटे समयको प्राप्त होकर नष्ट होजाता है। अर्थात् वर्षा ऋतु आदि समयम लड़ाई करनेवाला राजा भी अपनी सेनाको निस्सन्देह में डाल देता है || श
४ विनिपात प्रतीकार - आई हुई आपत्तियां नाशका उपाय चितवन करना । जैसे अपने दुर्ग-आदिपर आनेवाले या आये हुये विघ्नों का प्रतीकार करना यह मंत्रका 'विनिपात प्रतिकार' नामक चौथा है। किसी विद्वान् ने कहा है कि जो मनुष्य श्रापत्ति पड़ने पर मोह (अज्ञान) को नहीं होता और यथाशक्ति उद्योग करता है कि
५ कार्यसिद्धि - उन्नति, अवनति और सम अवस्था यह तीन प्रकारकी कार्य सिद्धि है। जिन सामा दि उपायों से विजिगीषु राजा अपनी उन्नति, शत्रुकी अवनति या दोनोंकी सम अवस्थाको प्राप्त हो. यह का सिद्धि नामका पांचवाँ मंत्रा है ।
किसी विद्वान ने कहा है 'कि जो मनुष्य साम, दान, दंड व भेद उपायोंसे कार्य सिद्धि चितवन करता है और कहीं पर उससे विरक्त नहीं होता, उसका कार्य निश्चयसे सिद्ध होजाता है ||१
निष्कर्षः - विजिगीषु राजाको समस्त मंत्री-मंडलसे या एक या दो उक्त पंचाङ्ग मंत्रका विचार वा तदनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिये ||२५||
मंत्र - सलाह के योग्यस्थान:
आकाश प्रतिशब्दवति चाश्रये मंत्र न कुर्यात् ॥ २६ ॥
अर्थः-जो स्थान चारों तरफ से खुला हुआ हो ऐसे स्थानपर तथा पर्वत व गुफा आदि स्थानों में जहाँ पर प्रतिध्वनि निकलती हो, राजा और मंत्री आदिको मंत्रणा नहीं करनी चाहिये ||२६|| भावार्थ:- गुप्त मंत्रणा का स्थान चारों ओरसे ढका हुआ और प्रति ध्वनि रहित होना चाहिये
१ उक्तं च यतः — यथास्थमत्स्य विनश्यति । शीघ्रं तथा महीपालः कुदेषां
यथा काको निशाकाले कौशिकश्च दिवा चरन् । विनश्यति कालेन तथा भूयः॥२॥ । धर्म कुन
२ उक्तं च यतः प्राक्का तु सा यो न मोईन
३ तथा चोक्तं ---- सामादिभिरुपैयाँ कार्यसिद्धि प्रचिनयेत् । न मिलति