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मन्त्रिसमुद्देश
सब उसकी अश्य विजय होती है, परन्तु ऐसे अवसरपर राजाकी अनुमति होनी चाहिये, उसे दुरा
नहीं होना चाहिये ॥ ५६॥
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ऋषिपुत्रक विद्वान् ने कहा कि 'यदि राजा मंत्रीके साथ हठ करने वाला नहीं है, तर विचार किये हुऐ मंत्रसे कार्य की स्थायी सिद्धि होती है ॥१॥
पराक्रम शून्य राजाकी हामि -
अमिता राज्य विक्रयष्टिरिव ॥ ६० ॥
अर्थ -- जो राजा पराक्रम रहित है उसका राज्य वणिक अर्थात जिसप्रकार महार- क्रिया में कुशलता न रखनेवाले सेटका राजाका राज्य भी व्यर्थ है, क्योंकि इसे पराक्रमी पुरुष जीत लेते हैं ॥६८॥
नीति-
भारद्वाज' त्रिवान्ने कहा है कि 'पराक्रम शून्य राजाका कोई भी सम्धि-विमर्श का सेट के समान व्यर्थ है; क्योंकि वह शत्रु से पराजित होजाता है य
-- सदाचार प्रवृति से साभ
नीतिर्यथावस्थितमर्थमुपलम्भयति ॥ ३६१ ||
अर्थ - नीतिशास्त्रका ज्ञान मनुष्यको करने योग्य कार्य के स्वरूपका बोध करा देता है ||६||
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व्यापारी के के समान व्यर्थ है । व्यर्थ है, उसीप्रकार पराक्रम शून्य
हित प्राप्ति और अहित स्थागका उपाय
विज्ञान ने कहा है कि 'माता भी मनुष्यका अहित कर सकती है, परन्तु अच्छी तरह विचार पूर्वक आचरणकी हुई मीति - सदाचार प्रवृत्ति-कदापि उसका अहित नहीं कर सकती। अनीतिदुराचाररूप प्रवृत्ति -- मनुष्य को खाए हुए विषफलके समान मार डालती है ।। १।।
हिताहितप्राप्तिपरिहारौ पुरुषकारापती ॥६२॥
अर्थ - हितकारक - सुख देने वाली - वस्तुकी प्राप्ति करना और अहित दुःख देनेवाली वस्तुओं को छोड़ना यह आत्मशक्ति पुरुषार्थके अधीन है। सारांश यह है कि जो वस्तु हितकारक होने पर भी दुर्लभ होती है उसे नैतिक मनुष्य पुरुषार्थ - आत्मशक्ति से प्राप्त कर लेता है । एवं जो वस्तु तत्काल में लाभदायक होनेपर भी अहित - फलकाल में दुःखदायक होती है, उसे यह जितेन्द्रिय होकर अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके प्रारमशक्तिले छोड़ देता है || ६२||
रायण विद्वान ने कहा है कि उद्योगी मनुष्य श्रात्मशक्तिले हितकारक वस्तु दुर्लभ होने पर भी
१ तथा ऋषिपुत्रकः - सुमंत्रितस्थ मंत्रस्य सिद्धिर्भवति शाश्वती । यदि स्याद्यास्वधाभाषी मंत्रिया सह पार्थिवः । २ तथा च भारद्वाजः – परेवा जायते साध्यो यो राजा विक्रमच्युतः । तेन समजते किंचिदखिना श्रेष्ठमो यथा ॥१॥ ३ तथा च गर्ग :-- मातापि विकृति पाति च भीतिः स्वनुष्ठितः । मीतिर्भसम्म क्रियाकमिव भचितम् ॥१॥ ४ तथा
वादिनं वाप्ययचानिए दुर्लभं सुलभं वा । चारमायामयान्मायों हितं चैव मुखा ॥१