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नीतिवाक्यामृत
मूर्ख मंत्री से कार्य सिद्धि निश्चित नहीं है, इसका दृष्टान्तों द्वारा समर्थन-
तदन्धवर्तकीयं काकतालीयं वा यन्मूर्खमंत्रात् कार्यसिद्धिः ||६२||
अर्थ- मूर्ख मंत्री मंत्रणा - सलाह से भी कभी किसी समय कार्य सिद्धि हो जाती है, परन्तु वह के हाथ आई हुई विशेष को न्याय के समान अथवा काकतालीय न्याय (ताड़ वृक्षके नीचेसे उड़कर जानेवाले कौएको उसीसमय उस वृत्तसे गिरनेवाले ताङ्गफलकी प्राप्ति रूप न्याय) के समान सार्वकालिक - सदा होनेवाली और निश्चित नहीं होती । अर्थात् – जिसप्रकार बन्धेके हाथों में कभी किसी समय भाग्योदय से वढेर पक्षी अचानक आ जाता है परन्तु उसका मिलना सदा व निश्चित नहीं है ।
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अथवा जिसप्रकार ताड़वृक्षके नीचे से उड़कर जाने वाले कौए के मुखमें उसीसमय उस वृद्धसे गिरनेवाले ताङ्गफलका प्राप्त होना, कभी उसके भाग्योदय से होजाता है, परन्तु सार्वकालिक व निश्चित नहीं है, उसीप्रकार राजाको भी भाग्योदय से, मूर्ख मन्त्रीकी मंत्रणा कार्यसिद्धि होजाती है, परन्तु वह सदा और निश्चित नहीं होती ।
स्पष्टीकरण - अन्धेके हाथमें प्राप्त हुई वटेर न्याय - कभी टेर (चिड़िया विशेष) अन्धेके शिर पर बैठ जाती है। वह 'मेरे शिरपर क्या चीज श्रापड़ी' ? ऐना समझकर उसे अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लेता है, यह 'बन्धे के हाथ में आई हुई वटेर न्याय' हैं प्रकरण में जिस प्रकार यद्यपि वटेरकी प्राप्ति चक्षुष्मान् ( श्रांखों वाले) पुरुषकी सरह अन्धे को भी हुई, परन्तु अन्धेकों उसकी प्राप्ति कदाचित् भाग्योदय से होती है, सदा व निश्चित रीति से नहीं। उसी प्रकार राजाको भी मूर्ख मंत्रीकी मंत्रणा से कदाचित् भाग्योदय से काय-सिद्धि होसकती है, परन्तु वह सार्वकालिक और नियत नहीं |
इसीप्रकार काकतालीयन्याय - साड़ वृक्ष में चिरकालसे फल लगता है और वह कभी ताड़ वृक्ष से टूट कर गिरते समय उसके नीचे मार्ग से जाते हुऐ कौए के मुखमें भाग्योदय से प्राप्त होजाता है उसे 'काकतालीयन्याय' कहते हैं। उक्त प्रकरण में जिसप्रकार लाइ वृक्षके फलकी प्राप्ति कौएको कभी भाग्योदय से होजाती है, परन्तु वह सार्वकालिक और नियत नहीं, उसीप्रकार मूर्ख मंत्रीकी मंत्रणासे राजाको भी कदाचित् भाग्योदय से कार्यसिद्धि हो सकती है, परन्तु सदा और निश्चित नहीं हो सकती ॥६२॥
गुरु' विद्वान भी कहा है कि 'मूर्खकी मंत्रणा से किसीप्रकार जो कार्य सिद्धि होती है, उसे भन्छे के हाथ में आई हुई वढेर-न्याय एवं काकतालीय न्यायके समान कदावित् और श्रनिश्चिव समझनी चाहिये !!'
मूर्ख मंत्रियों को मंत्रज्ञान जिसप्रकार का होता है
स घुणाचरन्यायो यन्मूर्खेषु मंत्रपरिज्ञानम् ॥६३॥
१ तथा च गुरुः-- धकमेवैतत् काकतालीयमेव च । यम्मूर्खमंत्रतः सिद्धिः कथंचिदपि जायसे ||
*म० मु० प्रति 'कार्यपरिज्ञान' ऐसा पाठ है, उसका अर्थ-कर्तव्य- निश्चय है, विशेष प्रर्थमे कुछ नहीं। क