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मन्त्रि-समुहेश
मंत्रियों के विषयमें विचार और एक मंत्रीसे हानि
एको मंत्री न कर्त्तव्यः ॥६६॥
एको हि मन्त्री निखग्रहश्चरति मुह्यति च कार्येषु कृच्छे षु ॥ ६७ ॥ अर्थ-राजाको केवल एक मंत्री भी रखना चाहिये, मयोंकि मी स्वचत्र होते निराश होजाता है; इसलिये वह अपनी इच्छाके अनुसार राजाका विरोधी होकर प्रत्येक कार्यको कर गलता है, और कठिनतासे निश्चय करने योग्य कार्यों में मोह-अज्ञानको प्राप्त होजाता है।
प्राप्त'-प्रामाणिक-पुरुषोंने भी कहा है कि विद्वान् व्यक्ति भी अकेला कर्तव्यमार्ग में संदिग्ध रहता है, अतः राजाको एक मंत्री नहीं बनाना चाहिये ।। ६६-६७ ।।
नारद विद्वान्ने कहा है कि 'राजासे नियुक्त किया हुश्रा अफेजा मंत्री अपनी इच्छानुमार कार्यों में प्रवृत्ति करता है, उसे राजासे उर नहीं रहता तथा कठिन कार्य करनेका निश्चय नहीं कर सकता ॥१॥ दो मन्त्रियोंसे हानि
द्वावपि मैत्रिणी न कार्यों ।। ६८॥
द्वौं मंत्रिणी संहतो राज्यं विनाशयतः ॥ ६ ॥ अर्थ-राजा दो मंत्रियोंको भी सलाहके लिये न रक्खे, क्योंकि दोनों मंत्री आपसमें मिलकर राज्य को नष्ट कर सालते हैं ।। ६५-६६ ।।
नारद विद्वानने कहा है कि राजा यदि दो मंत्रियोंको सलाहके लिये रक्से, तो ये परस्परमें मिककर-सलाह करके-उसके धनको नष्ट कर डालते हैं ।।१।। दोनों मन्त्रियोंसे होनेवाली हानि
निगृहीतो तो ते विनाशयतः ।। ७० ॥ अर्थ-यदि दोनों मंत्रियोंका निग्रह किया जाता है, तो वे मिलकर राजाको नष्ट कर देते हैं 1104
गुरु' विद्वामने भी कहा है कि 'समस्त राज-कर्मचारी मंत्रियों के अधीन होते हैं मतः राजाके प्रतिद्वन्दी-विरोधी-मंत्री उनकी सहायतासे राजाको मार देते हैं ॥१॥' राजाको जितने मंत्री रखने चाहिये
अयः पंच सप्त वा मन्त्रिणस्तैः कार्याः ।। ७१॥
, 'शातसारोऽपि सरकः संदिग्धे कार्यवस्नुनि संगृहीत-- २ तथा च नारदः-एको मंत्री कृतो राज्ञा स्वेच्छपा परिवर्तते । न करोति भयं राज्ञः कृत्येषु परिमुवति ॥ ३ तथा च नारदः-मंत्रियां द्वितयं चेन् स्यात् कथञ्चित् पृथिवीपतेः । अन्योम्म मंत्रपिया करते विभवा ।।। * तथा व गुरुः-भूपते: सेवका ये स्युस्तेम्युःसनियसम्मताः । वैस्तैः सहायता नीतेई म्युस्तं प्राणवाइयात् ॥ ॥