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मन्त्रिमश
। राजा व मनुष्य-कर्तव्य
यबहुगुणमनपायबहुलं भवति तत्कार्यमनुष्टयम् ॥७॥
राजा या विवेकी मनुष्यको सम्पत्ति और कीर्ति-लाभ-प्रादि बहुत गुणों से युक्त (श्रेष्ठ) तथा सीत--निल्य य कल्याणकारक कार्य करना चाहिये ||५||
मनि विद्वानने भी कहा है कि 'महान् राज्यके इच्छुक राजाको को२ कार्य अधिक से और ससे रहित व कल्याणकारक हो उन्हें करना चाहिये ।।१।।
अनुष्य-कर्तव्यम तदेव भुज्यते यदेव परिणमति ।।७६।।
जिसका परिपाक (पचना) यच्छी तरहसे होसके, बही प्रकृति-ऋतुके अनुयूल भोजन करना है । सारांश यह है कि नैतिक मनुष्यको पचनेवाले (निरन्तर विशुद्ध, पुण्य, यशस्य, और न्याय.
भविष्य में कल्याण-कारक) सत् कार्य करना चाहिये । उसे न पचनेवाले समाज दंड और मावि बारा अपकीर्तिको फैलानेवाले अन्याय-युक्त असत् कार्योंसे सदा दूर रहना चाहिये । इसी
बाको भो राज्यकी श्रीवृद्धि में उपयोगी संधि और विमह आदि कार्य इसप्रकार विशुद्ध मंत्रणा समाचाहिये, जिससे उसका भविष्य उज्वल-श्रेयस्कर हो । उसे भविष्यमैं होनेवाली राज्य-क्षति कायों से सदा दूर रहना चाहिये ।।७६|| विसप्रकारचे मंत्रियों की नियुक्तिसे कोई हानि नहीं
यथोक्तगुणसमवायिन्येकस्मिन् युगले या मंत्रिणि न कोऽपि दोषः ॥७७॥ ई-पदि मंत्रीमें पूर्वोक्त गुण (पांचमें सूत्रमें कहे. हुए द्विज, स्वदेशवासी, मदाचारी, कुलीन सोंसे रहित आदि सद्गुण) विद्यमान हों तो एक या दो मंत्रियों की भी नियुक्ति करनेसे राजाकी मा होसकती । सारांश यह है कि पूर्वमें प्राचार्यश्री ने एक या दो मंत्रियों के रखनफा निषेध किया
मन यथार्थ सिद्धान्त प्रगट करते हैं कि पूर्वोक्त गुणों मे विभूषित एक या दो मंत्रियों के रखने में साथ कोई हानि नहीं होसकती ॥७॥ सबसे मूर्ख मंत्रियों के रखनेका निषेध---
न हि महानप्यन्धसमुदायो रूपमुपलभेत (१७८|| -पानसे भी मन्धों का समूह रूपको नहीं जान सकता | मारांश यह है कि जिसप्रकार
समुदाय हरित-पीतादि रूपको नहीं जान सकता, उसीप्रकार पूर्षोक्त अशासे शून्य व मूत्र भी राज्य-द्धिक डायो का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता। अतएष नीतिज्ञ राजाको मात्र नहीं रखना चाहिये ।।७८)
भिमा-याच्न उत्तर कृत्य सत्तस्कार्य महीभुजा । नोपालो भवे यन्त्र गज्यं विपुग्नमि छना ।।१।।