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नीतिवाक्यामृत
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श्राम कर लेता है और अहितकारक सुलभ होनेपर भी छोड़ देता है एवं लाभदायक और हितकारक कार्य में प्रवृत्ति करता है ||१
मनुष्य-कर्त्तव्य ---
अकालसहं कार्यमद्यस्वीनं न कुर्यात् ॥ ६३॥
अर्थ --- जो कार्य विलम्ब करने योग्य नहीं है - शीघ्र करने योग्य है उसके करनेमें विलम्ब (दरी) न करना चाहिये ||३३||
चारायण विद्वान् ने कहा है कि 'विशेष सफल होनेवाले कार्यको यदि शीघ्र न किया जावे तो समय उसके फलको पीलेता है-विलम्ब करनेसे वह कार्य सिद्ध नहीं हो पाता ||१||
समय चुक जाने पर किये गये कार्यका शेष—
कालातिक्रमान्नखच्छेयमपि कार्यं भवति कुठारच्छेद्य ॥ ६४॥
अर्थ
-
जाने द्वारा
- सरलता से किया जानेवाला - कार्य भी कुल्हाड़े से काटने योग्य - अत्यन्त कठिन होजाता है । सारांश यह है कि जो कार्य समयपर किया जाता है वह थोड़े परिश्रम में सिद्ध-सफल - होजाता है, परन्तु समय चूक जानेपर उसमें महान् परिश्रम करना पड़ता है ||१४||
शुक विद्वान ने भी कहा है कि 'मामने उपस्थित हुए किसी कार्यको यदि उस समय न किया जाये तो थोड़े परिश्रम से सिद्ध होनेवाले उस कार्य में महान् परिश्रम करना पड़ता है ॥१॥१
नीतिज्ञ मनुष्यका कर्त्तव्य-
को नाम सचेतनः सुखसाध्यं कार्यं कृच्छ्रसाध्यमसाध्यं वा कुर्यात् ॥६५॥
अर्थ- कौन ऐसा बुद्धिमान पुरुष होगा ? जोकि सुखसे सिद्ध होनेयोग्य - सरल (धोड़े परिश्रम से मि होने) काय को दु:खमे सिद्ध होतेयोग्य (कठिन) या असाध्य ( विलकुल न सिद्ध होने योग्य) करेगा? कोई भी नहीं करेगा ||६||
गुरु विद्रान् ने भी कहा है कि 'बुद्धिमान पुरुषको सुलभ कार्य कठिन या दुर्लभ नहीं करना चाहिये ||१||
* 'अकालसहं कार्य यशस्वी विलम्पेन न कुर्यात् ऐसा पाठ ० ० लिक मू० प्रतियों में वर्तमान है, जो कि सं० टी० पुस्तक पाउने विशेष श्रद्धा है, उसका अर्थ यह है कि कीर्तिको कामना रखनेवाले मनुष्यको शीघ्र करने योग्य कार्य विलम्बमे न करना चाहिए।
१ तथा चारायणः - त्रस्य तस्य हि कार्यस्य सफलस्य विशेषतः । चित्रमक्रियमाणास्य कालः पिवति तत्फलम् ॥१॥ २ तथा शुक्रः- तत्कुणाचा यत् कुर्यात् किंचित् कार्यमुपस्थितम् । स्वल्पायामेन माध्यं चेत् कृच्छ प्रमिति ॥ १॥ ३ तथा गुरुः सुखसाध्यं च यत् कार्य कृष्णसाध्यं न कारयेत् । असाध्यं वा मतियस्य (भवेरिसले निरर्गला ॥१॥ संशोधित परिवर्तित सम्पादक