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मन्त्रि समु
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आपकी बातचीत का शब्द बाहर न आसके ||२६||
'विद्यामने कहा है 'सिद्धि चाहनेले राजाको खुले हुए स्थल मंत्रणा नहीं करनी जिस स्थान में मंत्रणाका शब्द टकराकर पतिध्वनि नहीं होती हो, ऐसे स्थानमें बैठकर हियें ॥१॥ १
मारवा
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साथमः
"मुख विकारकराभिनयाभ्यां प्रतिच्चानेन वा मनः स्थमप्यर्थमभ्युद्यन्ति विचक्षणाः ||२७|| लोग मंत्रणा करनेवालों के गुरु के विकार से हस्तादिके संचालन से, तथा प्रतिध्वनिरूप शब्दसे म अभिप्रायको जान लेते हैं ।
- चतुर दूत राजाके मुखकी प्रकृति और हस्त आदि अंगों के संचालन आदि से उसके हृदयजाते हैं, मतएव राजाको दूतके समक्ष ये कार्य नहीं करने चाहिये । अन्यथा मंत्र प्रकाशित हो
विदारको सुरक्षित रखनेकी अवधि :---
| कार्यसिद्धेरचितव्यो मंत्रः ||२८||
देव" विद्वान्ने कहा है कि 'मुखको आकृति, अभिप्राय, गमन, चेष्टा, भाषण और नेत्र तथा असे मन में रहनेवाली गुप्त बाद जान लीजाती है ॥ १
अर्थ:- अबतक कार्य सिद्ध न होजाये तब तक विवेकी पुरुषको अपने मंत्र की रक्षा करनी चाहिये । प्रकाशित नहीं करना चाहिए, अन्यथा कार्य सिद्ध नहीं हो पाता । ||२८||
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विद्वान ने कहा है कि 'विष-मक्षण केवल खानेवाले व्यक्तिको और खड्ग आदि-शस्त्रभी एक मारते हैं। परन्तु धर्मका नाश या मंत्रका भेद समस्त देश और सारी प्रजा सहित राजाको न कर RIP
स्थानमें मंत्रणा करनेसे हानि:
दिवा et asurer मंत्रयमाणस्याभिमतः प्रच्छन्नो वा भिनत्ति मंत्रम् ॥२६॥ अर्थः- यो व्यक्ति दिन या रात्रिमें मन्त्रणा करने योग्य स्थानकी परीक्षा किये विनाही मंत्र करता है मंत्र प्रकाशित होजाता है, क्योंकि छिपा हुआ आत्मीय पुरुष उसे सुनकर प्रकाशित कर देता है ।। २६॥ द्वारा उक्त बातका समर्थन:---
दिल रजन्यां वटवृक्षे प्रच्छलो चररुचिर-प्र-शि- खेति पिशाचेभ्यो वृत्तान्तमुपश्रुत्य चतुरक्षरायें: लोकमेकं चकारेति ॥ ३० ॥
सब गुरुः- निराश्रयप्रदेशे तु मंत्र: कार्यो न भृभुजा । प्रतिशब्दो न पत्र स्योम्मंत्रसिद्धि प्रवाम्छता ||१|| भदेवः--थाकारैरिगित गया चेष्टया भाषणेन च नेत्रविकारेण गृपतेऽन्तर्गतं मनः ||२॥ विदुः [एवं विषरसो दस्ति ] शस्त्र कश्च वध्यते । खराष्ट्र ं सहजं इन्ति राजानं धर्मः || ||
नोट:- उपलका प्रथम चरण संशोधन किया गया है सम्पादक:---