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नीविषाक्यामव
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नारद' विद्वान्ने कहा है कि जिसप्रकार दयाई के जान लेनेपर भी उसके भक्षण किये बिना भ्याधि नष्ट नहीं होती, उसीप्रकार मंत्रको कार्य-रूप में परिणत किये बिना केषल विचारमात्रसे काये-सिम नहीं होता ॥शा' संसार में प्राणियों का शत्र
नास्त्यविवेकात् परः प्राणिनां शत्र:॥४५|| अर्थ-संसारमें नीतिशास्त्रके अज्ञानको छोड़कर प्राणियोका कोई दूसरा शत्रु नहीं है। क्योंकि नैतिक अमान ही मनुष्यको शत्रु से वध बंधनादि कष्ट दिलाता है माया जमसे सभी कार्य नष्ट होजार UK:
गुरु' विद्वान्ने कहा है कि 'अज्ञान (मूर्खवा) प्राणियोंका महाशत्र, है, जिसके कारण मनुष्यको वध-बंधनादिके कष्ट भोगने पड़ते हैं ।।१।।' स्वयं करने योग्य कार्यको दूसरोंसे करानेसे हानि
आरमसाध्यमन्येन कारयौषधमन्यादिव व्याधि चिकित्सति ॥४६॥ अर्थ-जो मनुष्य स्वयं करने योग्य कार्यको दूसरोंसे कराता है, यह केवल औषधिके मृत्य हानसे ही रोगका परिहार-नाश चाहता है। अर्थात् जिसप्रकार केवल दवाईकी कीमत समझ मेनेमाग्रमे बीमारी नष्ट नहीं होती, उसीप्रकार स्वयं करने योग्य कार्यको दूसरोंसे करानेमे वह कार्य सिव नही दोसा ॥४६||
भूगु विद्वान्ने कहा है कि 'जो मूर्ख मनुष्य स्वयं करने योग्य कार्य दूसरोंसे कराता है, वह दवाई के केवल मूल्य समझनेसे रोगका नाश करना चाहता है ॥१॥
स्वामी की उन्नति-अयनतिका सेवकपर प्रभाव
। यो यत्प्रतिवद्धः स तेन सहोदयव्ययी ॥४७॥
अर्थ-जो सेवक जिस स्वामीके आश्रित है वह अपने स्वामोकी उन्नतिसे उन्नतिशील और अवननि से अवनतिशील होता है । सारांश यह है कि संसारमें सेवकके ऊपर उसके स्वामीको मार्षिक-हानि और बाभका प्रभाव पड़ता है जो
भागुरि विद्वान् ने कहा है कि राजा तालाबके जल-समान है और उसका सेवक कम-समूहके समान है, इसलिये राजाको वृद्धिसे उसके सेषककी वृद्धि और हानिसे उसकी भी हानि होती है ॥१॥ - .... . ..........---........ .. - .- - - । तथा च भारदः-विलाते मेपणे पहा बिना मा म नरवति । ग्याधिस्तण व मंत्रेऽपि न सिविः इरपजिते । २ तथा च गुरु:-अविवेकः शरीरस्थो मनुयायी महारिपुः । पश्चानुहानमात्रोऽपि करोति पबंधनम् ॥१॥ । तथा च भृगुः-प्रारमसाध्य तु यस्का पोऽम्पपारान् सुमन्वधीः । कारापति मायाधि नपेद् भेषप्रमूम्पतः ॥ १।। : तपा - भागुरिः-मरस्तोयसमो राजा भृश्यः पसारोपमः | तबाबा वृद्धि मभ्मेति तहिना विनश्यति [14