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नौतिय क्या
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निष्कर्षः-अपरिपक्व होनेके कारण यहाई से बोभा दुवाना जिस प्रकार निरर्थक है, उसी प्रकार कायर और मूर्ख पुरुष को मंत्रीपर नियुक्त करना निरर्थक है ॥२१॥ राजाओं को पाड्गुण्य-संधि व विग्रह आदि राजनैतिक कार्य---जिस विधि से करना चाहिये:
मंत्रपूर्वः सर्वोऽप्यारंभः क्षितिपतीनाम् ।।२२।। अर्थः-राजाओं को अपने समस्त कार्या ( मंधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव )का । प्रारम्भ मंत्रपूर्वक-सुत्रोग्य मंत्रियों के साथ निश्चय करके करना चाहिये ।
शुक्र' विद्वान ने कहा है कि जो राजा मंत्री के माथ विना निश्चय किये ही संधिविग्रह थान और आसन-पादि कार्य करता है, उसके ब कार्य नए सक-त्री के संभोगकी तरह मिष्फल होजाते हैं।' मंत्र-मंत्री-श्रादि को सलाह से होनेवाला लामः
अनपलब्धस्य ज्ञानं, उपलब्धस्य निश्चयः, निश्चितस्य बलाधान, अर्थस्य द्वैधस्य __ संशयच्छेदनं, एकदेशलब्धस्याशपोपलब्धिरिति मंत्रसाध्यमेतत् ॥२३॥ .अर्थः–सन्धि व विप्रह-यादि में उपयोगी एवं अज्ञात-विना जाने हुए या अप्राप्त (विना प्राम किये हुए) शत्र सैन्य वगैरह कार्य का जानना या प्राप्त करना । जाने हुए कार्यका निश्चय करना अथवा प्राप्त किये हुए को स्थिर करना। मिश्चित कार्यको दृढ़ करना या किसी कार्य में संदेह उत्पन्न होनेपर उसका निवारण करना । उदाहरणमें शत्रुभूत राजा के देश से आये हुए पहले गुप्तचरने शत्रु सैन्य-श्रादि के बारे में कुछ और कहा तथा दूसरे ने उससे विपरीत कह दिया ऐसे अवसर पर तीसरे विश्वासपात्र गुप्तचर को मंजकर उक्त संशय का निवारण करना अथवा अमुक शत्रु भत राजा से सन्धि करना चाहिये। अथवा विग्रह---धादि करना चाहिए ? इस प्रकार का संशय उत्पन्न होनेपर प्रवल प्रमाणों से उसको निवारण करना और एक देश प्राप्त किये हुए भूमि-श्रादि पदार्थों को पूर्ण प्राप्त करना अथवा एक देश जाने हुए कार्यके शेष भाग को भी जान लेना ये सब कार्य राजाको मंत्र-मंत्री आदि की सलाह से सिद्ध करना चाहिए। अथवा उक्त मंत्रसे इन सब कार्यों की सिद्धि होती है।
गुरु' विवान ने कहा है कि राजनीतिके विद्वान् राजा को धिना जानी हुई शत्र -सेना को गुमचरों के द्वारा जान लेनी चाहिये और जानने के पश्चात् यह निश्चय करना चाहिये कि हमारा कार्य (सन्धि और विग्रह-आदि) सिद्ध होगा ? या नहीं ? ||शा
निष्कर्ष:-विजिगीषु राजा को अप्राप्त राज्यादि की प्राप्ति और सुरक्षा-आदिके लिये अत्यन्त बुद्धिमान् व राजनीतिके धुरन्धर विद्वान् और अनुभवो मंत्री-मण्डलके साथ बैठकर मंत्र का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है ॥२३॥
१ तथाच शुक्र:---अ मंत्रमचिः माई यः कामं कुरुते नृपः । तस्य तन्निकल भावि पदस्य सुरत यथा ||5| २ उक्त मूत्र मु० मू पुस्तक से मंकलन किया गया है, मं० टोपु. में भी ऐसा ही पात्र है, परम्नु उसमें संधिसहित है और कोई पार्थक्य नहीं है । मग्पादक३ तथा न 15:-अजान शत्रच वय यिश्चिना । तस्य विशातपयकार्य सिर नवेति |